भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के घोषणापत्र में लंबे समय से अयोध्या में राम मंदिर बनाना, अनुच्छेद 370 को हटाना और समान नागरिक संहित लागू करना रहा है। अभी तक लोगों को लगता था कि ये कभी हकीहत में नहीं होगा लेकिन अब ऐसा नहीं रहा है। सोमवार को राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर पुर्नगठन बिल पास हो गया है। सरकार ने ये ऐतिहासिक कदम तीन तलाक पर हुए बड़े फैसले के महज एक हफ्ते से भी कम समय बाद उठाया है। अयोध्या मामला भी अब अंतिम चरण में है और जल्द ही इसपर कोई फैसला आ सकता है। मंगलवार से सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई शुरू हो चुकी है।
सरकार के 370 पर आए फैसले के बाद ये माना जा रहा है कि अगला कदम समान नागरिक संहिता को लागू करना हो सकता है।यानि कॉमन सिविल कोड या फिर यूनिफार्म सिविल कोड। भारत में समान नागरिकता के कानून के लिए बहस लगातार चल रही है। इसकी वकालत करने वाले लोगों का कहना है कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, फिर चाहे वो किसी भी धर्म से हो।
ये बहस इसलिए होती है क्योंकि इस तरह के कानून के ना होने से महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बढ़ रही है। वहीं सरकारें इस कानून को बनाने की हिमायतें तो करती हैं लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ऐसा करने में सफल नहीं हो पातीं।
सबसे पहले भारतीय संगठनों ने किया विरोध
अमेरिका और यूरोपीय लोकतंत्र में सभी धर्मों, बिरादरियों के लिए एक सिविल कानून है। ठीक इसी तरह के कानून की सिफारिश का विरोध सबसे पहले भारतीय संगठनों ने ही किया था। लेकिन अब इस कानून के विरोध में केवल मुस्लिम उलेमा और कुछ उदारवादी बुद्धिजीवी ही बचे हैं।
तीन तलाक पर बड़ी कामयाबी के बाद अब माना जा रहा है कि सरकार बड़े बदलाव और सुधारों के लिए संसद का रास्ता अपनाएगी। इस कानून को लागू करने के लिए अब वक्त भी सरकार के साथ है। तीन तलाक बिल ने इस कानून के लिए रास्ता खोल दिया है।
क्यों बचती रही हैं सरकारें
विचारकों का कहना है कि भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी सभी लोगों पर समान रूप से लागू होती है। ठीक उसी तरह समान नागरिक संहिता भी सबपर लागू होनी चाहिए। सिविल कानून सबके लिए अलग हैं, हिंदुओं, सिखों और जैनियों के लिए अगर, जबकि बौद्धों और पारसियों के लिए अलग।
जब बात विवाह की आती है तो सिविल कानून पारसियों, हिंदुओं, जैनियों, सिखों और बौद्धों के लिए कोडिफाई कर दिया गया है। साथ ही एक स्पेशल मैरिज एक्ट भी है। जिसके तहत सभी धर्म के अनुयायियों को अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के लिए एक सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई। लेकिन मुद्दा शुरू होता है वहां से जब मुस्लिमों की बात आती है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ में साल 1937 के बाद से ही कोई सुधार नहीं हुआ है, समान नागरिक संहिता की बात आजादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया। जब भी इसकी बात होती है तो उस पर राजनीति शुरू हो जाती है।
नेहरू और आंबेडकर ने की थी कोशिशआजादी के बाद जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पहले कानून मंत्री बीआर आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की, तो इन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। जब आंबेडकर ने इस कानून को अपनाने की बात की तो कुछ सदस्यों ने उनका विरोध किया।
हिंदू कोड बिल तक सीमितनेहरू को भारी विरोध के बाद हिंदू कोड बिल तक ही सीमित रहना पड़ा था। वह केवल इसी बिल को लागू करा सके, जो सिखों, जैनियों और बौद्धों पर लागू होता है।
इस बिल से द्विपत्नी और बहुपत्नी प्रथा को समाप्त किया गया। साथ ही महिलाओं को तलाक और उत्तराधिकार का अधिकार मिला। विवाह के लिए जाति को अप्रासंगिक बनाया गया। आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे, लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी तो उन्होंने पद छोड़ दिया था।
आधुनिक देशों में लागूदुनिया के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसा कानून लागू है। इस कानून के तहत व्यक्तिगत स्तर, संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार, विवाह, तलाक और गोद लेना सभी में हर धर्म के व्यक्ति पर समान कानून लागू होता है।
भारत का संविधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। वहीं इस तरह का कानून अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है। महज गोवा अकेला ऐसा राज्य है जहां यह लागू है।
अब क्या है स्थिति?अब ये कहा जा रहा है कि मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक जैसी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए ‘द मुस्लिम वुमेन एक्ट 2019’ लाया गया है। ऐसे में इन्हें और सशक्त करने के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत है।