दिल्ली के दंगे ने अरविंद केजरीवाल की दुविधाओं को बेनक़ाब कर दिया है. उनकी दुविधा है : वह एक ऐसे आदर्श एक्टिविस्ट बनें जिसने कभी दुनिया को आसमान के तारे तोड़कर लाने का वादा किया था, या ऐसा राजनीतिक जो सिर्फ़ सत्ता के लिए जीता है.
वह एक ऐसे समय में इस मकड़जाल में फंस गए हैं जब भारतीय समाज विघटन के दौर से गुज़र रहा है. भारतीय समाज समाजवादी-वाम-उदार मॉडल से उग्र-दक्षिणपंथी मॉडल की ओर बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है और इसने देश के नारिकों के समक्ष एक नई दुविधा खड़ी कर दी है, वो अखिल भारतीय पहचान को गले लगाए या धर्म-आधारित अपनी प्राथमिक पहचान का परचम बुलंद करे.
पहली बार नहीं हुए इस तरह के दंगे दंगे के दौरान केजरीवाल के व्यवहार पर कोई टिप्पणी करने से पहले उस परिस्थिति को समझने की ज़रूरत है जिससे वह घिरे हुए थे. इस स्तर का दंगा देश में पहली बार हुआ है, ऐसा नहीं है. देश के बंटवारे के बाद से देश में कई दंगे हो चुके हैं. अलीगढ़, अहमदाबाद, भागलपुर, मलियाना, हाशिमपुरा, मुज़फ़्फ़रनगर आदि दंगे ऐसे हैं जिसकी तकलीफ़देह यादें आज भी ज़ेहन में ताज़ा हैं. मैंने जानबूझकर 1984 के सिख विरोधी कत्लेआम का यहां ज़िक्र नहीं किया है क्योंकि यह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था. पर ये दंगे किसी और दौर में हुए. उन दिनों हमारी संवेदनाएं कुछ अलग तरह की थीं. राज्य की प्रकृति अलग थी.
अलग समय और काल में हुए दिल्ली के दंगे
दिल्ली में हुए दंगे एक अलग समय और काल में हुए हैं. पहला और सबसे प्रमुख यह कि यह ऐसे समय में हुए जब देश में हिंदुत्ववादी ताक़तें न केवल जड़ जमा चुकी हैं बल्कि भारी संख्या में सीटें जीतकर वह केंद्र की सत्ता पर भी क़ाबिज है. भारतीय राजनीति में अब वे हाशिए पर नहीं हैं बल्कि अब हमारे मुख्य नेता हैं. दूसरा, पहले की परिणति के तौर पर, धार्मिक पहचान अस्तित्व का सबसे अहम मुद्दा बन गया है. हिंदू और मुसलमान दोनों ही बहुत ही आक्रामक रूप में सार्वजनिक रूप से अपने धार्मिक पहचानों का प्रदर्शन कर रहे हैं. तीसरा, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को लेकर चलनेवाली ताक़तें कमज़ोर हो गई हैं, संवाद के परंपरागत तरीके बदल गए हैं और अब यह नए तरीक़े से हो रहा है. चौथा, मीडिया, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थान जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के सरपरस्त थे, पीछे हट रहे हैं. और अंत में, सत्य और वास्तविकता सार्वजनिक ईको-सिस्टम को अब आगे बढ़ानेवाला नहीं रहा. असत्य, झूठ और प्रचार हर नागरिक के दिमाग़ को प्रभावित कर रहा है.यह पहला मौक़ा था जब सांप्रदायिक ताक़तों में लज्जा नाम की कोई चीज़ नहीं दिखाई दी. दोनों ही ओर के सांप्रदायिक तत्व बड़ी निर्लज्जता से भड़काऊ बयान देते रहे हैं और दोनों के अपने-अपने व्यापक जनाधार हैं और जब यह सब हो रहा था, राज्य ने अपनी आंखें बंद रखी. संजीदा ख़याल रखने सवाली ताक़तों की जगह मांसल-राष्ट्रवाद की तूती बोल रही है. इतिहास से बदला लेना एक प्रभावशाली नैरेटिव बन गया है.
‘राष्ट्र विरोधी बने असहमति के स्वर’
मुसलमान अल्पसंख्यकों को खुलेआम राज्य का दुश्मन बताया जा रहा है. देश के गृह मंत्री इतिहास को उकेरते हैं और उन्हें ‘दीमक’ बताते हैं जबकि सरकार के एक मंत्री ऐसे देशद्रोहियों को ख़त्म करने की बात करते हैं. संवैधानिक अधिकारों के लिए हो रहे विरोध प्रदर्शन को देश के टुकड़े-टुकड़े करने की साज़िश बताया जा रहा है. असहमति के स्वर को राष्ट्र-विरोधी माना जा रहा है. ठगों और गुंडों के उकसावे पर ‘भारत माता की जय’ बोलना भारतीय होने की एकमात्र आवश्यक शर्त बना दी गई है.
ऐसा नहीं है कि दिल्ली में दंगे अचानक ही भड़क गए. सत्ताधारी दल ने जिस तरह का चुनावी अभियान चलाया था वह पहले कभी नहीं देखा गया. जहां तक मुझे याद है, एक पत्रकार के रूप में, मुझे ऐसा कोई चुनाव अभियान याद नहीं है जब मतदाताओं में ध्रुवीकरण के लिए इतना ज़हर घोला गया हो. हिंदू वोटरों को गीता, गंगाजल और काशी विश्वनाथ के भभूत की सौगंध खाने को कहा गया. बीजेपी के लिए यह कोई चुनाव अभियान नहीं था बल्कि हिंदू धर्म को “इस्लाम के कूच” से सुरक्षित करना था.
‘दोनों पार्टियों को मिली ध्रुवीकरण में सफलता’
आप (AAP) को वोट देना इस्लाम को वोट देना था और इस्लाम को एक ऐसे धर्म के रूप में प्रदर्शित किया गया जो कि इस्लामिक राज्य स्थापित करेगा जिसमें कोई भी हिंदू सुरक्षित नहीं रहेगा, उनकी मां, बहनों, बेटियों और पत्नियों को अगवा कर लिया जाएगा और उनके साथ बलात्कार किया जाएगा. और ऐसे प्रमाण हैं कि बीजेपी को इसमें सफलता भी मिली और वह आप के वोटरों के एक हिस्से को अपने साथ ले जाने में कामयाब रही.
अगर केजरीवाल शाहीन बाग़ जाते और उनका खुलकर समर्थन किया होता तो वे गहरे संकट में फंस जाते. मनीष सिसोदिया हारते-हारते बचे क्योंकि उन्होंने टीवी पर दिए एक इंटरव्यू में कह दिया था कि वे शाहीन बाग़ का समर्थन करते हैं. तो एक परिवर्तित राजनीतिक ईकोसिस्टम में, लड़ाई मुसलमानों का वोट जीतने का नहीं है बल्कि हिंदुओं को यह भरोसा दिलाने का है कि उनके हितों का ख़याल रखा जाएगा. मोदी ने मुसलमान वोटरों को असंगत बना दिया है. मुसलमानों को रिझाने की राजनीति कुछ हद तक दफ़नाई जा चुकी है. हिंदुओं को रिझाना अब नई बात हो गई है. बजरंग बली अरविंद केजरीवाल के नए तारणहार हैं. मुसलमानों की टोपी अब बीते दिनों की बात हो गई, हिंदुओं के टीका या तिलक का अब ज़माना आ गया है.
‘मुसलमान बहुल इलाकों में हुए दंगे’
जब दिल्ली में दंगे फैले, तो केजरीवाल ने दिल्ली के चुनाव में 70 में से 62 सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया और बीजेपी के लिए सिर्फ़ 8 सीटें छोड़ी. एक सफल हिंदू नेता के रूप में उन्होंने झंडा गाड़ दिया जिसे मुसलमान के वोटों से कोई लगाव नहीं है. दंगे दिल्ली के उसी इलाक़े में हुए जहां मुसलमानों की बहुतायत है. जाफ़राबाद, सीलामपुर, करावलनगर और चांदबाग़ में मुसलमानों की संख्या काफ़ी अधिक है.
अगर केजरीवाल इन इलाक़ों में जाते तो भाजपा को उन्हें मुसलमान-समर्थक बताना आसान हो जाता. इसमें संदेह नहीं कि इस दंगे में हिंदू भी मारे गए हैं. पर मुसलमानों की तुलना में उनकी संख्या कम है. अगर केजरीवाल दंगा-प्रभावित क्षेत्रों में जाते तो बीजेपी और हिंदुत्व ताक़तें केजरीवाल की हिंदू-नेता के नव-अर्जित छवि को नष्ट कर देते क्योंकि ये लोग अर्ध सत्य और झूठ का आविष्कार कर उसे सच बनाकर परोसने में में सिद्धहस्त हैं.
‘प्रभावित क्षेत्रों में केजरीवाल को करना चाहिए था दौरा’
लेकिन इसके बावजूद, दिल्ली के मुख्यमंत्री और जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होने के नाते केजरीवाल को दंगा प्रभावित इलाक़ों में जाना चाहिए था. उन्हें वहां जाकर बैठ जाना चाहिए था. इससे स्थानीय लोगों को संबल मिलता और क़ानून को लागू करनेवाली एजेंसियों को दंगे की आग को बुझाने में अपना सब कुछ झोंकने के लिए बाध्य करता. पर उन्होंने अपने घर में ही बंद रहना उचित समझा.
वे सिर्फ़ अस्पतालों में दंगा-पीड़ितों को देखने गए और कुछ बाहरी इलाक़ों का दौरा किया. उन्होंने खुले तौर पर उन लोगों की आलोचना करने से इनकार कर दिया जिन्होंने दंगे को भड़काया था और दिल्ली पुलिस को समय पर कार्रवाई करने के बारे में आदेश नहीं देने पर केंद्र से सवाल नहीं किया. इसके उलट, उन्होंने अमित शाह से भेंट की. अगर यह पुराना केजरीवाल होता, तो वह अमित शाह, जो कि राष्ट्रीय राजधानी में क़ानून और व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार हैं, को कभी माफ़ नहीं करता.
‘ताहिर हुसैन को पार्टी ने नहीं दिया मौका’
केजरीवाल ने अपनी पार्टी के काउंसिलर ताहिर हुसैन को निलंबित करने में थोड़ा भी समय नहीं गंवाया जिस पर आईबी के कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या का आरोप है. हुसैन को उनकी पार्टी ने ख़ुद को निर्दोष साबित करने का मौक़ा भी नहीं दिया.
आधे घंटे के भीतर हुसैन के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कर दी गई, उन्हें निलंबित कर दिया गया और फिर अपने बचाव के लिए अकेला छोड़ दिया गया. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके घर से बहुत सारी अवांछित वस्तुएं बरामद हुईं जिनका दंगे में प्रयोग हो सकता था. पर इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है कि उनके घर पर हिंसा पर उतारू भीड़ ने हमला किया और पुलिस ने उनके परिजनों को सुरक्षित वहां से निकाला और जब उनके घर से आपत्तिजनक सामान बरामद हुए, वे अपने घर पर नहीं थे.
अपनी ही पार्टी के नेता की सुनने की बजाय केजरीवाल ने कहा कि उसको गिरफ़्तार कर लिया जाए और दंडित किया जाए. इससे पहले कि अदालत इस मामले में कुछ भी कहे, उन्होंने उसे दोषी क़रार दे दिया. मुसलमानों के साथ खड़ा नहीं दिखने का उनका यह एक और प्रयास था.
‘कन्हैया के खिलाफ इसलिए हुआ मुकदमा’
सात महीने से अधिक समय तक उस फ़ाइल पर कोई निर्णय नहीं लेने के बाद उन्होंने जेएनयू के ‘टुकड़े-टुकड़े’ मामले से जुड़े कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ देश द्रोह का मुक़दमा चलाने की अनुमति दे दी. अगर इस मामले में कोई दम नहीं होता, जैसा कि उनकी ख़ुद की जांच समिति ने उस समय पाया जब यह मामला हुआ, तो उन्होंने अनुमति देने से इनकार क्यों नहीं किया?
बीजेपी कुमार को देश-विरोधी साबित करने में लगी थी. राजनीति के नए ईकोसिस्टम में अगर उन्होंने कुमार के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की अनुमति नहीं दी होती तो बीजेपी उनकी हिंदू नेता की नव-निर्मित छवि को तार-तार कर सकती थी.
ऐसा लगता है कि केजरीवाल अब ऐसे आदर्शवादी एक्टिविस्ट नहीं रहे जो सभी तरह की सही बातों पर लड़ते थे; जो राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में आए थे. दुख की बात है कि राजनीति ने उनको बदल दिया. दंगे के दौरान वे अगर कहीं नहीं दिखे और न्याय के साथ खड़े नहीं हुए और कामचलाऊ क़दम उठाया तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. केजरीवाल अब एक ऐसे नेता हैं जिनके लिए वोट ही सब कुछ है.