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नेपाल में देउबा की सरकार बनेगी या ओली की फिर होगी वापसी?

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नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा


नेपाल में किसकी सरकार

  • नेपाल की संसद में कुल 275 सीटें हैं
  • 165 सीटों पर ‘फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट’ के तहत चुनाव हुए
  • 165 सीटों के लिए कुल 2412 उम्मीदवार मैदान में थे
  • इनमें 2187 पुरुष और 225 महिलाएं थीं
  • बाकी 110 सीटों पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था के तहत चुनाव हुए
  • प्रांतीय विधानसभा की 330 सीटों के लिए कुल 3224 उम्मीदवार मैदान में थे
  • नेपाल में पिछले 32 सालों में 32 सरकारें रही हैं
  • 2008 के बाद से अब तक दस सरकारें आई-गई हैं.
  • शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस को अभी तक 53 सीटों पर ही जीत
  • नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) को 42 सीटें मिली हैं
  • चुनाव में 61 प्रतिशत वोट हुए, जनता की निराशा के संकेत

नेपाल में हुए चुनाव में अभी तक किसी भी राजनीतिक दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया है. हालाँकि कुछ इलाक़ों में फिर से मतदान हो रहा है जिसके नतीजे 8 दिसंबर तक ही आ पाएँगे. नेपाल की संसद में कुल 275 सीटें हैं जिनमें से 165 सीटों पर सीधे चुनाव होता है. जबकि बाक़ी की 110 सीटें ऐसी हैं जिन पर समानुपातिक चुनाव होता है. ये सीटें कुल वोट के प्रतिशत के आधार पर राजनीतिक दलों को दी जाती हैं. ये चुनाव संसद और सात प्रांतीय सभाओं के लिए एक साथ होते हैं. शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस को अभी तक 53 सीटों पर ही जीत मिली है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी यानी नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) को 42 सीटें मिली हैं. अभी तक जो रुझान है और जिन सीटों पर उम्मीदवार विजयी घोषित हो चुके हैं, उनमें नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन आगे चल रहा है. जबकि समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाले चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) आगे चल रही है. केपी शर्मा ओली ने दक्षिणपंथी दल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और मधेस की समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया है.

राजनीति में हलचल

हालाँकि अभी औपचारिक रूप से चुनावी नतीजों की घोषणा में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन नेपाल की राजनीति में काफ़ी हलचल मची हुई है. चुनावी आँकड़ों से संकेत ज़रूर मिल रहे हैं जो सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस के गठबंधन को आगे बता रहे हैं. इस गठबंधन में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल’ (माओइस्ट सेंटर), ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (यूनिफ़ाइड सोशलिस्ट)’, राष्ट्रीय जन मोर्चा और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी भी हैं. बैठकों के दौर पर दौर चल रहे हैं और हर पार्टी अपनी तरफ़ से कोशिश कर रही है कि सत्ता की कुंजी उसके हाथों में आ जाए. कई नेता ख़ुद प्रधानमंत्री बनने की होड़ में लगे हुए हैं, जिनमें ओली तो हैं ही, साथ ही नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रामचन्द्र पौडेल भी हैं. मंगलवार को पौडेल ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत समाजवादी) के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल से मुलाक़ात की और ख़ुद को प्रधनमंत्री बनाने के लिए समर्थन माँगा. हालाँकि माधव नेपाल ख़ुद भी इस पद को हासिल करने के लिए ज़ोर लगा रहे हैं. वहीं जानकार कहते हैं कि नेपाली कांग्रेस के युवा महासचिव गगन थापा भी इस दौड़ में दिख रहे हैं. लेकिन देउबा की नेपाली कांग्रेस ने जो गठबंधन बनाया है, उसमें जिसे सबसे ज़्यादा महत्वाकांक्षी के रूप में देखा जा रहा है, वो हैं नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेता पुष्प कमल दहाल ‘प्रचंड’. जहाँ तक बात वयोवृद्ध माधव नेपाल की है, उनकी तरफ़ से भी ये प्रयास रहेगा कि ऐसा कुछ हो जिसकी वजह से उनका चेहरा बतौर प्रधानमंत्री आगे किया जाए. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जिस तरह इस बार के चुनावों में 61 प्रतिशत वोटिंग हुई, वो इस बात की तरफ़ संकेत हैं कि जनता दोनों ही गठबंधनों से निराश ही है.

गठबंधन पर सवाल

काठमांडू स्थित राजनीतिक विश्लेषक केशव दहाल ने बीबीसी से बात करते हुए कहा- ”शेर बहादुर देउबा का जो गठबंधन है वो अस्वाभाविक है क्योंकि नेपाली कांग्रेस की विचारधारा अलग है जबकि लाल झंडे वाले दलों की बिल्कुल अलग. इसलिए भी जनता के सामने ज़्यादा विकल्प मौजूद नहीं दिख रहे होंगे.” वो कहते हैं कि केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में नेपाल ने सबसे ज़्यादा राजनीतिक अस्थिरता देखी है. उनका गठबंधन वाम और अति दक्षिणपंथी सोच वाले दलों का है. दहाल कहते हैं, “पूरे परिणामों की घोषणा होने दीजिए. तब सबके सही रंग सामने आने लगेंगे. तब पता चलेगा कि किसकी कितनी महत्वाकांक्षा है. काफ़ी उलटफेर भी हो सकते हैं. ये भी हो सकता है कि कई गठबंधन टूटें औए नए गठबंधन सामने आएँ.” उन्होंने कई संभावनाओं की चर्चा भी की और कहा कि ये भी हो सकता है कि सभी वाममपंथी विचारधारा के दल एक साथ आ जाएँ. उनका कहना था- ”ये कहना जल्दबाज़ी भी हो सकती है क्योंकि किसी दल ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. बैठकें चल रही हैं और सब जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं. लेकिन अभी तक तो शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन की संभावना दिख रही है सरकार बनाने की. कुछ जानकार ये भी मानते हैं कि अगर देउबा का गठबंधन एक या दो सीट से बहुमत से दूर होता है, तो उनके लिए निर्दलीयों या छोटे दलों का समर्थन हासिल करना मुश्किल नहीं होगा.नेपाल में मुख्य मुकाबला दो गठबंधनों के बीच है

भारत, चीन और अमेरिका की नज़र

नेपाल के चुनावी नतीजों पर कई देशों की नज़र है जिनमें चीन और अमेरिका के अलावा भारत भी है. केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में नेपाल और भारत के रिश्ते ख़राब हो गए थे. नेपाल की राजनीति पर नज़र रखने वाले मानते हैं कि ओली का झुकाव चीन की तरफ़ ज़्यादा था. दहाल कहते हैं- ”भारत और नेपाल के रिश्ते अटूट हैं इसमें कोई दो राय नहीं हैं. मुझे लगता है कि जो ओली ने प्रधानमंत्री रहते किया, वो सिर्फ़ भारत को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए किया. वो ये इसलिए भी कर रहे होंगे ताकि भारत ओली को भी वैसी ही तरजीह दे जो वो नेपाल के दूसरे प्रधानमंत्रियों को देता आ रहा था.” हालाँकि ओली के हटने के बाद जब नेपाल की बागडोर शेर बहादुर देउबा के हाथों में आई और जब वो भारत के दौरे पर गए तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय गए थे. उन्होंने विपक्ष के किसी भी नेता से कोई मुलाक़ात नहीं की थी. उनके इस क़दम की भारत के राजनीतिक हलकों में अलग-अलग व्याख्या की जाने लगी. राजनीतिक मामलों के जानकार इसे ‘डैमेज कंट्रोल’ की कोशिश के रूप में देखने लगे. केपी शर्मा ओली को सत्ता सँभालते ही ‘भारत की ओर से की गई आर्थिक नाकेबंदी’ से पैदा हुए हालात का सामना करना पड़ गया जिसके कारण दोनों ही देशों के बीच कूटनीतिक तनाव बढ़ता गया. ओली ने उसी दौरान चीन के साथ व्यापार और आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए दरवाज़े खोलने का काम किया. उन्होंने ‘भारत पर नेपाल की निर्भरता को भी ख़त्म’ करने के लिए चीन के साथ एक के बाद एक, कई और समझौते कर डाले.के पी शर्मा ओली और नरेंद्र मोदी बतौर नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने भारत को लेकर जो क़दम उठाए या जो बयान दिए, उससे समझा जाने लगा कि उनका झुकाव चीन की तरफ़ ज़्यादा हो रहा है. उनका एक बयान तो भगवान राम को लेकर भी दिया गया, जिस पर काफ़ी विवाद पैदा हो गया था. उन्होंने अपने एक संबोधन में ये दावा तक कर दिया कि “श्रीराम का जन्म नेपाल में हुआ था” और भारत ने “झूठा अयोध्या” बनाया है. ये बात वर्ष 2020 की है, जब कोरोना महामारी ने पाँव पसारने शुरू कर दिए थे. इसी बीच उन्होंने ये भी कहा था कि “भारत का वायरस, चीन या इटली के वायरस से ज़्यादा ख़तरनाक है.” फिर उसी साल, ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने देश का नया मानचित्र जारी किया, जिसमें कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल के हिस्से के रूप में दिखाया गया. धीरे-धीरे नेपाल की जनता के बीच उनकी छवि भारत को चुनौती देने वाले नेता की बनने लगी. शेर बहादुर देउबा और उनकी नेपाली कांग्रेस के रिश्ते हमेशा से ही भारत से अच्छे रहे थे. उनकी पार्टी को ‘भारत समर्थक’ के रूप में देखा जाता रहा. उन्होंने हमेशा दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्ते बनाए रखने में कामयाबी हासिल की. जब देउबा ने नेपाल की बागडोर फिर से संभाली थी तो बीबीसी से बात करते हुए विदेश मामलों के जानकार और लंदन के किंग्स कॉलेज के प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत ने कहा था कि ओली के हटने का मतलब ही है कि नेपाल और भारत के बीच संबंधों में नरमी आएगी. देउबा चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और अपने हर कार्यकाल में देउबा ने दोनों देशों के बीच रिश्तों को कभी ख़राब नहीं होने दिया था. हालाँकि अपने कार्यकाल के आख़िर में ओली ने भारत से संबंध बेहतर करने के दिशा में काफ़ी कोशिश भी की थी. लेकिन भारत ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया.शेर बहादुर देउबा के साथ नरेंद्र मोदी

मज़बूत विपक्ष का आना तय

काठमांडू में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे को लगता है कि चुनावों के परिणाम जो भी आएँ, लेकिन एक बात इस बार जो अच्छी होगी नेपाल के लिए, वो है कि विपक्ष इस बार मज़बूत होगा. उन्होंने काठमांडू से फ़ोन पर बातचीत के दौरान कहा कि ‘कम से कम अब सत्ता अपनी मनमानी नहीं कर सकेगी. मज़बूत विपक्ष उसकी जवाबदेही तय करेगा.’ राजनीतिक हलचल के बीच लोगों की निगाहें अंतिम चुनावी परिणामों पर टिकी हुई हैं, जिनके आते ही सभी दलों के पत्ते खुल जाएँगे. राजनीतिक विश्लेषक नए समीकरणों से भी इनकार नहीं कर रहे हैं. केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में संसद के अध्यक्ष रह चुके उनके क़रीबी सुभाष नेमभांग ने काठमांडू में पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि उनका दल और उनके गठबंधन के साथी किसी को भी समर्थन दे सकते हैं या ले सकते हैं. उनकी इस बात से अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया है. लेकिन युवराज घिमिरे कहते हैं कि ‘नए संविधान के आने के बाद दो सालों तक तो जो भी सरकार आएगी, वो स्थिर रहेगी क्योंकि ऐसे प्रावधान किए गए हैं कि नेपाल की संसद में इस दौरान कोई भी दल या विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकता है.’