हिमाचल प्रदेश के सोलन ज़िले के दाड़लाघाट इलाक़े में पिछले दो हफ़्तों से एक बेचैनी भरा सन्नाटा पसरा है.
ये वो जगह है जहाँ पिछले तीन दशक से चल रहा एक बड़ा सीमेंट प्लांट 15 दिसंबर को अचानक बंद कर दिया गया.
अदानी ग्रुप ने सितंबर 2022 में इस प्लांट का अधिग्रहण किया था. उसी वक़्त कंपनी ने बिलासपुर ज़िले के बरमाणा में चल रहे एक और सीमेंट प्लांट को भी ख़रीद लिया था.
इस अधिग्रहण के क़रीब दो महीने बाद कंपनी ने कहा कि इन दोनों फ़ैक्टरियों से माल ढुलाई के लिए जो क़ीमत उसे चुकानी पड़ रही है, उसकी वजह से उसे नुक़सान उठाना पड़ रहा है और इसी कारण वो इन दोनों प्लांट्स को बंद कर रही है.
14 दिसंबर देर शाम कंपनी ने कर्मचारियों को अगले निर्देश तक ड्यूटी पर नहीं आने की सूचना दी.
दाड़लाघाट के लोगों का कहना है कि सीमेंट प्लांट को बंद करने का फ़ैसला इतना अचानक था कि बहुत से कर्मचारियों को इस बारे में तभी पता चल जब वो 15 दिसंबर की सुबह काम पर पहुंचे.
हिमाचल प्रदेश में हाल ही में सत्ता परिवर्तन हुआ है और सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी है. नई सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद हुए इस घटनाक्रम को हिमाचल प्रदेश के बहुत से लोग राजनीति से जोड़ कर भी देख रहे हैं.
1990 के दशक में दाड़लाघाट और बरमाणा के इन इलाकों में जब ये सीमेंट प्लांट बन रहे थे, उस समय सैंकड़ों स्थानीय लोगों की ज़मीनों का अधिग्रहण हुआ था.
हज़ारों लोगों के रोज़गार पर सवालिया निशान
जिन लोगों की ज़मीनें गईं उनमें से कुछ लोगों को इन्हीं प्लांट्स में नौकरी मिल गई, लेकिन बहुत से लोग ऐसे थे जिन्हें इन सीमेंट प्लांट्स में कोई रोज़गार न मिल सका.
जिन्हें नौकरी नहीं मिली वो आने वाले कई सालों में इन्हीं प्लांट्स के साथ ट्रांसपोर्टेशन के बिज़नेस में जुड़ते चले गए. पिछले तीन दशकों में ऐसी स्थिति बनी कि इन इलाक़ों की पूरी अर्थव्यवस्था इन्हीं सीमेंट प्लांट्स पर निर्भर हो गई क्योंकि यहाँ रोज़गार का और कोई ज़रिया नहीं था.
आज, जब इन फ़ैक्ट्रीज़ पर ताला लग गया है तो यहाँ के लोग ठगा-सा महसूस कर रहे हैं.
हिमाचल सरकार का कहना है कि दाड़लाघाट और बरमाणा की सीमेंट फ़ैक्टरियों में क़रीब 2,000 हिमाचली लोग काम कर रहे थे.
लेकिन साथ ही सरकार मानती है कि इन फ़ैक्टरियों के बंद होने से जो लोग प्रभावित हुए हैं उनमें एक बहुत बड़ी संख्या उन स्थानीय लोगों की है जिनके क़रीब 10,000 ट्रक माल ढुलाई के लिए इन फ़ैक्टरियों से जुड़े हुए थे.
इन हज़ारों ट्रकों की वजह से ही इन इलाक़ों में दर्जनों ढाबे, ट्रकों के स्पेयर पार्ट बेचने वाली दुकानें और ट्रकों की मरम्मत करने वाले गराज चल रहे थे जिनमें हज़ारों लोग काम कर रहे थे.
आज इन सब लोगों के रोज़गार पर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है.
इन सीमेंट फ़ैक्टरियों से माल ढोने वाले सैंकड़ों ट्रक आज सड़क पर खड़े हो गए हैं.
दाड़लाघाट में रहने वाले महेश कुमार कहते हैं, “इसी प्लांट के लिए तो लोग गाड़ियां लाए हैं कि सीमेंट बनेगा, बाहर जायेगा तो हमारी गाड़ियां ढ़ुलाई करेंगी, या बाहर से कुछ आएगा तो हमारी गाड़ियां लेकर आएंगी. लेकिन जब प्लांट ही बंद हो गया तो गाड़ियां तो खड़ी हैं, यहां दुनिया भर की गाड़ियां खड़ी हैं.”
”अब कई दिनों से प्लांट बंद है तो लोग फिर टेंशन में हैं कि अब क्या करेंगे क्योंकि लोगों ने अपनी जितनी जमापूंजी थी वो इन गाड़ियों पर लगा दी. इस इलाक़े का सबसे ज़्यादा बिज़नेस इस कंपनी के ऊपर निर्भर करता है. ये चलेगी तो आम जनता का भी कारोबार चलेगा.”
महेश कुमार कहते हैं, “यहां से लेकर पंजाब तक जितनी भी गाड़ियां जाती हैं. जितने भी हाइवे में होटल वगैरह हैं…इस कंपनी के बंद होने से वो सब बंद हो जाते हैं क्योंकि उनका भी कारोबार चौपट हो जाता है.
कोई टायर पंक्चर बनाने वाला है, कोई चाय वाला है, कोई बीड़ी-सिगरेट वाला है. उन सबका काम-धंधा चौपट हो जाता है और रोज़गार की तलाश में वो इधर-उधर भटकने लग जाते हैं.”
क्या कह रही है हिमाचल सरकार ?
हिमाचल प्रदेश सरकार का कहना है कि वो स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा करेगी.
हिमाचल प्रदेश के प्रिंसिपल सेक्रेटरी (इंडस्ट्रीज़ एंड ट्रांसपोर्ट) आर. डी. नज़ीम कहते हैं, “हमारा पहला उद्देश्य स्थानीय हिमाचलियों की मदद करना है. इसलिए हमने अदानी को पहले ही बता दिया है कि हम इस तरह का फ़ॉर्मूला बनाएंगे कि ट्रांसपोर्टेशन हमारे लोगों के लिए फ़ायदेमंद हो क्योंकि यह ट्रांसपोर्टेशन उन लोगों द्वारा चलाया जाता है जिन्होंने इन सीमेंट प्लांट्स के बनने पर अपना घर और ज़मीन खो दी थी.”
मौजूदा हालात में दाड़लाघाट में सीमेंट फ़ैक्टरी बंद होने से प्रभावित होने वाले लोगों का कहना है कि जिन हिमाचली लोगों को इस फ़ैक्टरी में नौकरी दी गई थी उनमें से कई लोगों को ट्रांसफ़र किया जा रहा है.
अदानी ग्रुप का कहना है कि दाड़लाघाट और गगल सीमेंट प्लांट्स के कई कर्मचारियों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए कंपनी ने उनके स्थानांतरण की पहल की.
कंपनी का कहना है कि सीमेंट प्लांट्स के बंद होने के दौरान कर्मचारियों की नौकरियों को बचाने के लिए उन्हें स्थानांतरित करना अनिवार्य हो गया है.
अदानी ग्रुप का कहना है कि दोनों सीमेंट प्लांट्स के 143 कर्मचारियों को अदानी सीमेंट के नज़दीकी संयंत्रों में स्थानांतरित किया जा रहा है.
कंपनी के मुताबिक़, कुछ कर्मचारियों को नालागढ़, रोपड़ और बठिंडा के ग्राइंडिंग प्लांट्स में और कुछ कर्मचारियों को मारवाड़ मुंडवा, राबड़ियावास और लखेड़ी के एकीकृत प्लांट्स में स्थानांतरित किया जा रहा है.
अदानी ग्रुप का कहना है कि उत्पादन, रखरखाव और गुणवत्ता जैसे परिचालन क्षेत्रों के लोगों को अलग-अलग जगहों पर पुनर्नियुक्त किया जा रहा है.
क्या है विवाद की वजह?
इन फ़ैक्टरियों के बंद होने से पहले माल ढुलाई के लिए ट्रक ऑपरेटर पहाड़ी इलाक़ों में 10.58 रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर और मैदानी इलाक़ों में 5.29 रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर की दर से क़ीमत ले रहे थे.
अदानी ग्रुप का कहना है कि पहाड़ी इलाक़ों में इस लागत को घटा कर छह रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर किया जाना चाहिए.
बीबीसी ने अदानी ग्रुप से उनका पक्ष जानने की कोशिश की.
जवाब में अदानी ग्रुप ने कहा, “गगल और दाड़लाघाट में हमारे संयंत्र काफ़ी समय से घाटे में चल रहे हैं. प्रचलित बाज़ार दरों से कहीं ज़्यादा भाड़ा दरों की मांग करने वाले ट्रक यूनियनों के अड़ियल रुख़ की वजह से हमें 15 दिसंबर 2022 से दोनों संयंत्रों को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि इससे हमारा संचालन अव्यावहारिक हो गया है.”
”हमने ट्रक मालिकों से बार-बार अनुरोध किया है कि मौजूदा प्रचलित भाड़े को घटाकर 6 रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर किया जाए जो हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा गठित स्थायी समिति की रिपोर्ट की सिफ़ारिशों के अनुरूप है.”
अदानी ग्रुप का ये भी कहना है कि स्थानीय ट्रांसपोर्ट यूनियनें अन्य ट्रांसपोर्टरों को प्रतिस्पर्धी दरों पर काम नहीं करने देती हैं और ये बात खुले बाज़ार की भावना के ख़िलाफ़ है. कंपनी के मुताबिक़, उसे ट्रांसपोर्टेशन के लिए कहीं से भी ट्रकों को लगाने की आज़ादी होनी चाहिए.
सीमेंट प्लांट्स बंद होने के कुछ ही समय बाद हिमाचल सरकार इस मसले को सुलझाने के लिए सक्रिय हो गई थी.
हिमाचल प्रदेश के इंडस्ट्रीज़ डिपार्टमेंट ने अदानी ग्रुप को एक कारण-बताओ नोटिस जारी कर पूछा था कि उन्होंने स्थानीय प्रशासन या राज्य सरकार को बताए बिना इन सीमेंट प्लांट्स को बंद करने का एकतरफ़ा निर्णय कैसे लिया.
पिछले कुछ दिनों में ट्रांसपोर्ट यूनियनों, अदानी ग्रुप और हिमाचल प्रदेश सरकार के अधिकारीयों के बीच कई दौर की बातचीत होने के बावजूद इस मसले का अब तक कोई हल नहीं निकल पाया है.
हिमाचल प्रदेश के प्रिंसिपल सेक्रेटरी (इंडस्ट्रीज़ एंड ट्रांसपोर्ट) आर डी नज़ीम कहते हैं, “ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक नई सरकार बनी है और उसी समय अदानी ग्रुप ने प्लांट्स को बंद करने के फ़ैसला लिया.
ये सिर्फ़ कर्मचारियों का सवाल नहीं हैं. इन इलाक़ों में हज़ारों ट्रक ऑपरेटर, ड्राइवर, क्लीनर और ढाबा चलाने वालों पर इसका प्रभाव पड़ा है. पिछले कई दशकों में लोगों ने अपनी ज़मीनें गंवाई हैं. ”
”ये वो लोग हैं जो भूमिहीन और बेघर हो गए क्योंकि उन्होंने इन सीमेंट फ़ैक्टरियों के लिए ज़मीनें दीं. आप जानते हैं कि पहाड़ी इलाकों में अच्छी ज़मीन की क्या क़ीमत होती है, वो कितनी अनमोल होती है.”
‘इन ज़मीनों में हर फ़सल उगती थी’
स्थानीय लोग भी आज उन ज़मीनों को याद कर रहे हैं.
दाड़लाघाट में रहने वाले प्रेम लाल ठाकुर उन सैंकड़ों लोगों में से हैं जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण उस समय हुआ जब सीमेंट प्लांट बन रहा था.
सीमेंट प्लांट की तरफ़ इशारा करते हुए वो कहते हैं, “इन ज़मीनों में हर फ़सल उगती थी. ये जो आप देख रहे हैं… जितना इलाक़ा है, ये बहुत प्यारी ज़मीन होती थी. इसमें मक्की होती थी, कनक होती थी, मटर होती थी, और जितनी भी दालें … हर चीज़ होती थी इसमें. ऐसी ज़मीन थी ये. आज हम भी इस बात पर पछता रहे हैं कि अच्छी-भली ज़मीन देकर बेमतलब के चक्कर में पड़ गए हैं हम.”
दाड़लाघाट निवासी तुलसी राम ठाकुर कहते हैं, “हमारी ज़मीन ऐसी थी कि इसमें एक बार फ़सल लगा देते थे तो कैसी भी गर्मी पड़ जाए वो सूख नहीं सकती थी. अच्छी फ़सल होती थी.”
1990 में ज़मीनों का अधिग्रहण सीमेंट प्लांट्स को बनाने और पहाड़ों के लाइमस्टोन या चूनापत्थर का खनन करने के लिए किया गया था.
दाड़लाघाट इलाक़े के ग्याना गाँव में रहने वाले पारस ठाकुर कहते हैं, “हमारे यहाँ पर जो लाइमस्टोन है वो दुनिया भर में सबसे हाई ग्रेड का लाइमस्टोन है. 1992 में 19,000 रुपए प्रति बीघा और 62,000 रुपए प्रति बीघा के हिसाब से हमलोगों ने ज़मीनें दे रखी हैं.
तो इतनी कम क़ीमत पर जो लाइमस्टोन इनको मिला है उसकी वजह से सबसे कम मैन्युफ़ैक्चरिंग कॉस्ट इनको हिमाचल में बैठ रही है.”
ज़मीनों का अधिग्रहण करते वक़्त उन्हें दो श्रेणियों में बांटा गया था. वो ज़मीनें जिन पर खेती की जा सकती थी उनका अधिग्रहण 62,000 रुपए प्रति बीघा और वो ज़मीनें जिन पर खेती नहीं की जा सकती थी उनका अधिग्रहण 19,000 रुपए प्रति बीघा के हिसाब से किया गया था.
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‘ज़मीन गई पर रोज़गार नहीं मिला’
स्थानीय लोगों का कहना है कि ज़मीन लेते वक़्त जो रोज़गार देने के वायदे किये गए थे वो भी पूरे नहीं हुए.
दाड़लाघाट में रहने वाली कान्ता शर्मा के परिवार की ज़मीन का भी अधिग्रहण हुआ था. वो कहती हैं कि उन्होंने कई बार सीमेंट फ़ैक्टरी से ये पता करने की कोशिश की कि क्या उनके बच्चों को वहां कोई नौकरी मिल सकती है, लेकिन यही जवाब मिला कि उनके बच्चों के लिए कोई काम नहीं है.
वो कहती हैं, “अब माना कि कुछ बच्चे ज़्यादा चुस्त हैं, ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं, पर सरकार और फ़ैक्टरी से ये पूछना चाहती हूँ कि जो बच्चे कम पढ़े-लिखे हैं क्या वो खाना नहीं खाएंगे? उनको भी तो उनकी पढ़ाई के मुताबिक़ कोई काम मिलना चाहिए.”
पारस ठाकुर कहते हैं कि दाड़लाघाट सीमेंट प्लांट के लिए जहां से पत्थरों का खनन किया जाता है वो इलाक़ा पांच पंचायतों में आता है.
वो कहते हैं, “1992 से लेकर आज तक इन पांच पंचायतों से 7000 बीघा ज़मीन का अधिग्रहण केवल माइनिंग के लिए किया जा चुका है. लेकिन माइनिंग एरिया की पांच पंचायतों में से अभी तक सिर्फ़ 72 परिवारों को प्रत्यक्ष रोज़गार मिला है.”
स्थानीय निवासी जयदेव ठाकुर कहते हैं कि दाड़लाघाट सीमेंट फ़ैक्टरी के माइनिंग एरिया के लिए उनकी ज़मीनों का तीन-चार बार अधिग्रहण हो चुका है, लेकिन उन्हें आज तक फ़ैक्टरी की तरफ़ से कोई रोज़गार नहीं मिला.
अदानी ग्रुप और ट्रांसपोर्टरों के बीच बने गतिरोध के चलते इन इलाक़ों के लोगों में बढ़ता रोष और मायूसी साफ़ नज़र आती है.
स्थानीय निवासी अनिल कुमार कहते हैं, “किसी इलाक़े में इतना बड़ा प्लांट न लगे तो बेहतर है. अगर प्लांट लग जाता है तो उसके साथ बहुत-सी चीज़ें जुड़ जाती हैं… चाहे वो एक छोटा दुकानदार है, चाहे दिहाड़ीदार है, चाहे मज़दूर है, चाहे कोई भी है. प्लांट लगने से नुक़सान भी होते हैं और फ़ायदे भी होता है. प्लांट बंद नहीं होना चाहिए, एक तरह से ये तानाशाही है.”
इन सीमेंट प्लांट्स के लगने से लोगों को उम्मीद थी कि उनके बच्चों को रोज़गार की तलाश में कहीं दूर नहीं जाना पड़ेगा. यही सोचकर सैंकड़ों लोगों ने अपनी उपजाऊ ज़मीनें माइनिंग एरिया और फ़ैक्टरियों के लिए दीं. आज उनमें से बहुत से लोग तीन दशक पहले लिए उस फ़ैसले पर पछता ज़रूर रहे हैं, लेकिन साथ ही ये उम्मीद भी कर रहे हैं कि ये प्लांट्स फिर एक बार शुरू हो जाएंगे.
शायद इस उम्मीद के सिवा उनके पास कोई और रास्ता बचा भी नहीं है.