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कर्नाटक चुनाव ; गांधी परिवार से ज्यादा मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए होगी खुद को साबित करने की चुनौती?

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कर्नाटक चुनाव का सियासी शखनांद हो गया है. राज्य की 224 विधानसभा सीटों के लिए 10 मई को वोटिंग होगी, जबकि 13 मई को जनता का जनादेश आएगा. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए चुनाव जीतना हर कीमत पर जरूरी है.

लगातार हो रही हारों के बीच कर्नाटक का चुनाव लोकसभा चुनाव की परीक्षा से पहले पार्टी के लिए बड़ा बूस्टर साबित हो सकता है. कांग्रेस के लिए कर्नाटक चुनाव जीतना जरूरी है, उससे भी ज्यादा नतीजे पार्टी की कमान संभाल रहे मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए मायने रखता है.

दरअसल, कर्नाटक मल्लिकार्जुन खड़गे का गृह राज्य है. विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ पार्टी को उनसे काफी उम्मीद है कि खड़गे के अध्यक्ष पर रहने से कर्नाटक में कांग्रेस को सियासी फायदा मिलेगा और दलित वोटों पर कमजोर हो रही पकड़ फिर से मजबूत होगी. जगजीवन राम के बाद खड़गे दलित समुदाय से कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले केवल दूसरे नेता हैं. कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे दलित समुदाय के विश्वास को कायम रखने की है और खड़गे की सियासी कसरत का केंद्र उनका गृह राज्य कर्नाटक ही होगा. ऐसे में गांधी परिवार से ज्यादा खड़गे की साख कर्नाटक में दांव पर लगी हुई है, जहां उन्हें खुद को साबित करना होगा.

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खड़गे का नेतृत्व कितना अलग?
मल्लिकार्जुन खड़गे को अगर कांग्रेस में अपना दबदबा कायम रखना है और उन्हें अपने नेतृत्व का लोहा पार्टी में मनवाना है तो कर्नाटक की चुनावी जंग हर हाल में जीतनी होगी. इस बात का अहसास मल्लिकार्जुन खड़गे को भी है. वे जमीन पर उतर चुनाव के लिए पार्टी की रणनीति भी बना रहे हैं. खड़गे के सामने अपने लंबे सियासी अनुभव और पद का इस्तेमाल करके पार्टी में चल रही तमाम तरह की गुटबाजी को खत्म कर सभी को एकजुट कर साथ लेकर चलने की चुनौती है. ऐसे में खड़गे का कर्नाटक चुनाव में सब कुछ दांव पर लगा है.

दलित वोटरों को वापस लाने की चुनौती
पिछले कुछ वर्षों में कर्नाटक में कांग्रेस का आधार दलित वोट सिकुड़ता जा रहा है. दलितों के एक वर्ग का रुझान भाजपा की ओर बढ़ा है. राज्य में दलितों की संख्या कुल आबादी की 19.5 फीसदी है जो कि राज्य में सबसे बड़े जातीय समूह के रूप में है. दलितों के लिए 36 विधानसभा सीटें रिजर्व है, लेकिन वे इससे भी ज्यादा सीटों पर असर रखते हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी को दलित बहुल सीटों पर बहुत ज्यादा फायदा मिला था. 2018 में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. बीजेपी को दलितों का 40 फीसदी वोट मिला था, जबकि कांग्रेस को 37 और जेडीएस को 18 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे. ऐसे में खड़गे को दलित वोट बैंक फिर से कांग्रेस के प्रति लामबंद करने के लिए मशक्कत करना होगा.

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हालांकि, कर्नाटक में दलित दो भागों ‘वाम दलित’ या मदिगास या ‘अछूत’ और ‘दक्षिणपंथी दलित’ या “छूत” या होलीया में बंटे हुए हैं. कांग्रेस आतंरिक आरक्षण के मुद्दे पर लेफ्ट और राइट विंग के बीच मतभेदों को खत्म करने में विफल रही है, जिसके चलते वामपंथियों का समर्थन खो दिया है, जिनकी राज्य में सबसे अधिक आबादी है. खड़गे दलितों के दक्षिणपंथ से ताल्लुक रखते हैं और वामपंथियों को अपने पक्ष में करने की उनकी कुशलता ही तय करेगा कि आगामी चुनाव में दलितों को कांग्रेस के पक्ष में कर पाते हैं या नहीं. बीजेपी के आरक्षण को चार हिस्सों में बांटने के बाद जिस तरह से बंजारा समुदाय नाराज है, उससे कांग्रेस को दलितों के बीच अपनी पैठ जमाने की उम्मीदें दिखने लगी है. यह खड़गे के लिए सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा होगी.

खड़गे के सामने गुटबाजी बड़ी चुनौती
मल्लिकार्जुन खड़गे को मालूम है कि कर्नाटक में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती पार्टी की गुटबाजी है. एक तरफ प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार का खेमा है तो दूसरी तरफ पूर्व सीएम सिद्धारमैया का गुट है. इस अंदरूनी लड़ाई को रोकना जरूरी है, क्योंकि दोनों ही नेताओं का अपना-अपना सियासी कद और आधार है. शिवकुमार वोक्कालिगा समाज से आते हैं तो सिद्धारमैया ओबीसी के कोरबा जाति से हैं. इन दोनों ही जातियों की अच्छी खासी संख्या है, जिसे कांग्रेस हर हाल में अपने साथ जोड़कर रखना चाहती है.

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खड़गे अपने राजनीतिक अनुभव और अच्छी छवि का इस्तेमाल कर शिवकुमार-सिद्धारमैया दोनों ही नेताओं के बीच सियासी तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हैं. इसीलिए कांग्रेस ने कर्नाटक में सीएम का चेहरा दोनों में से किसी को भी नहीं बनाया है और सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ी रही है. खड़गे अगर दोनों नेताओं को एकजुट रखने की कोशिश कामयाब हो जाती है और कांग्रेस के लिए चुनाव जीतना आसान हो जाएगा. इसका क्रेडिट खड़गे को ही मिलेगा और यह उनकी सियासी पारी में बड़ा मील का पत्थर साबित हो सकता है.

खड़गे का अनुभव आएगा काम
कर्नाटक में अब इस गुटबाजी या अंदरूनी लड़ाई के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे का निजी अनुभव भी जुड़ा हुआ है. तीन मौके ऐसे आए हैं जब वे मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे. 1999 में वे एस एम कृष्णा से हारे थे, 2004 में एन धर्म सिंह से और 2013 में सिद्धारमैया से. 2004 में ऐसी घटना हुई कि जेडीएस के प्रति खड़गे का रवैया तल्ख हो गया. असल में 2004 में खड़गे के पास गठबंधन वाली सरकार चलाने का सुनहरा मौका था और वे सीएम बनने जा रहे थे. लेकिन तब ऐन वक्त पर एचडी देवगौड़ा ने कांग्रेस के ही एन धर्म सिंह का समर्थन कर दिया और खड़गे मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए. इसके बाद जब 2018 में सरकार बनने के डेढ़ साल के अंदर गिरी थी, उस वजह से भी जेडीएस पर खड़गे का भरोसा डगमगा गया था.

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माना जा रहा है कि मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस हाईकमान यानी सोनिया गांधी और राहुल गांधी को साफ कर दिया है कि जेडीएस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. यही वजह है कि कांग्रेस कर्नाटक में जेडीएस को बीजेपी की बी-टीम बता रही है और डीके शिवकुमार को आगे कर देवगौड़ा के कोर वोटबैंक वोक्कालिगा समुदाय को साधने में जुटी है. अगर कर्नाटक के चुनाव नतीजे किसी तरह से त्रिशंकु विधानसभा वाले बनते है तो उस स्थिति में जेडीएस को कांग्रेस के साथ लाने की चुनौती होगी.

गांधी परिवार के साथ रहा कर्नाटक
बता दें कि जब 1977 में कांग्रेस का देश भर से सूपड़ा साफ हो गया था, उस समय कर्नाटक ही एक ऐसा राज्य था जो इंदिरा गांधी के साथ खड़ा रहा था. कर्टनाक की चिकमंगलूर सीट से उपचुनाव लड़ इंदिरा गांधी तब संसद पहुंची थीं. उस समय पूर्व बीजेपी सांसद डीबी चंद्र गौड़ा जो तब कांग्रेस में थे, तब उन्होंने अपनी सीट इंदिरा गांधी के लिए छोड़ दी थी. इसी तरह से सोनिया गांधी ने सियासत में कदम रखा तो अपना पहला चुनाव कर्नाटक के बेल्लारी से लड़ा था और बीजेपी की सुषमा स्वराज को हराकर संसद पहुंची थीं.

खड़गे के लिए संजीवनी होगी जीत
कांग्रेस अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे कमजोर मुकाम पर खड़ी है. कांग्रेस का जनाधार सिमटता जा रहा है और पार्टी केंद्र की सत्ता से 9 सालों से बाहर है और एक के बाद एक राज्य की सरकार खोती जा रही है. कांग्रेस की राजनीतिक जमीन सिकुड़ती जा रही है और सिर्फ तीन राज्य में पार्टी सत्ता में अपने दम पर है. ऐसे में खड़गे की अग्निपरीक्षा उनके ही गृह राज्य कर्नाटक में है, जहां पार्टी के खोए हुए जनाधार को सिर्फ वापस लाने के ही नहीं बल्कि पार्टी को सत्ता में वापसी कराकर खुद को साबित करना होगा.

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कर्नाटक में हर पांच साल पर सत्ता परिवर्तन का ट्रेंड चार दशक से चला आ रहा है. यही वजह है कि कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ गई हैं तो खड़गे के हौसले बुलंद हैं. खड़गे लगातार कर्नाटक का दौरा कर रहे हैं और चुनावी अभियान को धार देकर माहौल अपने पक्ष में कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश से सटे हैदराबाद कर्नाटक क्षेत्र में कांग्रेस का सारा दारोमदार खड़गे पर टिका है, यहां पर उन्हें सिर्फ बीजेपी से ही नहीं बल्कि असदुद्दीन ओवैसी और केसीआर की पार्टी से भी पार पाना होगा.

पीएम मोदी बनाम खड़गे की जंग
पीएम मोदी ने कर्नाटक चुनाव अभियान का आगाज खड़गे के इलाके से शुरू किया, जहां उन्होंने दलित समुदाय के लोगों को जमीन का पट्टा देकर उन्हें साधने की कवायद की है. इसके चलते साफ है कि कर्नाटक का चुनाव मोदी बनाम खड़गे के बीच मुकाबला होना तय है. खड़गे को अपने दुर्ग को बचाकर पीएम मोदी के खिलाफ अपने आपको साबित करके दिखाना भी होगा. वो सफल हो जाते हैं तो निश्चित तौर कर्नाटक का चुनाव उनके लिए संजीवनी साबित होगा, क्योंकि 2024 के चुनाव का इसे लिटमस टेस्ट माना जा रहा है. कर्नाटक की जीत सिर्फ कांग्रेस को सत्ता ही नहीं दिलाएगी बल्कि 2024 के लिए विपक्षी एकजुटता की कोशिशों को मजबूती देगी. कांग्रेस की विपक्षी दलों के बीच स्वीकार्यता बढ़ेगी और क्षेत्रीय पार्टी के लिए कांग्रेस को इग्नोर नहीं कर सकेंगी.

सर्वे से कांग्रेस के हौसले बुलंद
वैसे, कर्नाटक में कांग्रेस के लिए गुड न्यूज ये है कि कुछ सर्वे पार्टी के बेहतर प्रदर्शन की ओर इशारा करते हैं. इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन ने दावा किया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कर्नाटक में 17 सीटें मिल सकती है. सर्वे के मुताबिक, यूपीए को कर्नाटक में 43 प्रतिशत वोट मिल सकता है. दूसरे मीडिया सर्वे में भी कांग्रेस को कर्नाटक में जीत मिलती दिख रही है, लेकिन असल तस्वीर तो 13 मई को पता चलेगी. अब ऐसा नहीं है कि कांग्रेस कोई कर्नाटक में अभी बेहतर प्रदर्शन कर रही हो. जब भी पार्टी दिक्कत में आई है, इस राज्य ने हमेशा साथ दिया है.

कांग्रेस ने उतार दिए उम्मीदवार
कांग्रेस कर्नाटक की जंग को जीतने के लिए पहले से सक्रिय है. विधानसभा चुनाव की घोषणा से एक हफ्ता पहले ही कांग्रेस ने अपने आधे से ज्यादा प्रत्याशियों का ऐलान कर रखा है. 124 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए हैं तो बाकी बची 100 सीटों के लिए गुरुवार को स्क्रीनिंग कमेटी में उम्मीदवारों के नाम पर मंथन किया जाएगा. कांग्रेस कर्नाटक में उम्मीदवारों को आखिरी समय तक अटकाए रखने के बजाय समय से चुनावी रण में उतार देना चाहती है ताकि उन्हें माहौल को अपने पक्ष में करने के लिए चुनाव प्रचार करने का उचित समय मिल सके. कर्नाटक का चुनाव कांग्रेस जीतती है तो मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए सियासी तौर पर काफी बड़ी सफलता होगी.