Home देश 26 जुलाई कारगिल विजय दिवस : देश 24 वां ‘कारगिल विजय दिवस’

26 जुलाई कारगिल विजय दिवस : देश 24 वां ‘कारगिल विजय दिवस’

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26 जुलाई को देश 24 वां ‘कारगिल विजय दिवस’ मनाया जा रहा है. हमारे जांबाज सिपाहियों ने 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तानी सैनिकों को कारगिल से खदेड़कर दुर्गम चोटियों पर भारत का ध्‍वज फहराया था.

18 हजार फीट की ऊंचाई पर कारगिल का यह युद्ध तकरीबन दो माह तक चला, जिसमें 527 सैनिकों की शहादत हुई तथा 1300 से ज्यादा सैनिक घायल हुए. कारगिल वार के इन्हीं वीरों की गाथाएं हमारी स्‍मृतियों में ही नहीं बल्कि कुछ किताबों में भी दर्ज है. इन किताबों में उन खतों की कहानियां दर्ज हैं जो कभी पढ़े ही नहीं गए. इनमें उस इंतजार को लिखा गया है जो कभी पूरा नहीं होगा. ये किताबें बहादुरी की गाथाएं तो प्रस्‍तुत करती ही हैं, मानव मन की संवेदनाओं से भी कोमल अंदाज में रूबरू करवाती हैं. इनमें शहीदों की वीरता के किस्‍से हैं और घर रह गए माता-पिता, पत्‍नी, बच्‍चों के मनोभाव भी रेखांकित किए गए हैं.

कैप्टन विक्रम बत्रा जब पहली जून 1999 को कारगिल युद्ध के लिए गए तो उनके कंधों पर राष्ट्रीय श्रीनगर-लेह मार्ग के बिलकुल ठीक ऊपर महत्वपूर्ण चोटी 5140 को दुश्मन फौज से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी थी. यह दुर्गम क्षेत्र मात्र एक चोटी ही नहीं थी यह तो करोड़ों देशवासियों के सम्मान की चोटी थी जिसे विक्रम बत्रा ने अपनी व अपने साथियों की वीरता के दम पर 20 जून 1999 को लगभग 3 बजकर 30 मिनट पर अपने कब्जे में ले लिया. उनका रेडियो से विजयी उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर…’ जैसे ही देश वासियों को सुनाई दिया हर एक भारतीय की नसों में विजय नाद और अपने सैनिकों पर फख्र बढ़ गया.

अगला पड़ाव चोटी 4875 का था यह अभियान भी विक्रम बत्रा की ही अगुवाई में शुरू हुआ. विक्रम बत्रा बहुत से पाकिस्तानी सैनिकों को मारते हुए आगे बढ़े लेकिन इस बीच वह अपने घायल साथी लेफ्टिनेंट नवीन को बचाने के लिए बंकर से बाहर निकल आए. ‘तुम बीबी-बच्चों वाले हो यहीं रुको बाहर मैं जाता हूं’ मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण वीर योद्धा कैप्टन विक्रम बत्रा के ये शब्द अपनी ही टीम के एक सुबेदार के लिए थे.

घायल लेफ्टिनेंट नवीन को बचाते हुए जब एक गोली विक्रम बत्रा के सीने में लगी तो भारत मां के इस लाल ने भारत माता की जय कहते हुए अंतिम सांस ली, इससे आहत सभी सैनिक गोलियों की परवाह किए बिना दुश्मन पर टूट पड़े और चोटी 4875 को आखिरकार फतह किया. इस वीरता के चलते 15 अगस्त 1999 को कैप्टन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र से नवाजा गया.

लेखक-पत्रकार हरिंदर बवेजा की एक किताब ‘अ सोल्जर्स डायरीः कारगिल, द इनसाइड स्टोरी’ की प्रस्तावना में शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा लिखते हैं कि हमने कल्पना भी नहीं की थी कि एक सुपुत्र कभी अपने अभिभावकों को इतना सम्मान दिला सकता है, जितना हमें उसकी शहादत के बीस साल बाद भी देश के लोगों से मिल रहा है. एक परमवीर चक्र प्राप्त सुपुत्र के गौरवांवित अभिभावक के रूप में उसने हमारा मान-सम्मान बढ़ा दिया.”

सूरत (गुजरात) के बाशिंदों द्वारा किए गए स्वागत-सम्मान का जिक्र करते हुए शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा लिखते हैं कि जब बग्घी पर सवार कोई 20 किलोमीटर लंबे मार्ग से हम गुजरे तो रास्तों के दोनों ओर खड़े लगभग चार लाख सूरतवासी पंखुड़ियों की वर्षा कर स्वागत करते रहे. इसने मुझे भावुक कर दिया. भीगी पलकों के सामने विक्रम आ गया. मैंने सोचा काश, यह सम्मान देखने के लिए मेरे बेटे को और जीवन मिला होता.

पत्रकार हरिंदर बवेजा ने ‘ए सोल्जर्स डायरी: कारगिल इनसाइड स्टोरी’ एक सैनिक की डायरी की शक्ल में लिखी है. जब कारगिल-द्रास में घुसपैठियों की हलचल का पता चला, तो शुरू में इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया था. दहलीज पर आ गए दुश्मन के बारे में काफी देर से पता चला. भारतीय जवानों के पास ढंग के हथियार, दूरबीन यहां तक कि बर्फीली पहाड़ियों पर चलने के लिए जरूरी जूते, दूरबीन, कंबल और स्लीपिंग बैग तक का अभाव था. उनके पास दुर्गम पहाड़ियों के पर्याप्त और अद्यतन नक्शे तक नहीं थे. इस डायरी ने हमारे बेहद मार्मिक क्षणों को भी दर्ज किया है. मोर्चे पर जाने की तैयारी कर रहे एक मेजर को खत मिलता है, बिना पढ़े ही वह उसे जेब में रख लेते हैं. अड़तालीस घंटे बाद वह शहीद हो जाते हैं. यह पत्र उनकी पत्नी का था!

एक अन्‍य पत्रकार रचना बिष्ट रावत की पुस्तक ‘Kargil : Untold Stories From The War’ का हिंदी अनुवाद ‘कारगिल’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है. इस युद्ध को लड़नेवाले जवानों और शहीदों के परिवारवालों से बात कर रचना बिष्ट रावत ने अदम्य मानवीय साहस दिखानेवाली ये कहानियां लिखी हैं. रचना बिष्‍ट रावत के अनुसार कारगिल युद्ध के दौरान वे अहमदाबाद में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में रिपोर्टर के तौर पर कार्यरत थी. उसी दौरान कैप्टन मनोज रावत से मेरा विवाह हुआ था, जो 3 इंजीनियर रेजीमेंट में तैनात थे. मेरे पति की यूनिट सेना की उन यूनिटों में एक थी, जिसे संभावित खतरे को देखते हुए राजस्थान की सीमा पर तुरंत तैनात कर दिया गया था. कारगिल पर पुस्तक लिखते हुए मैं सिपाहियों के कई पिताओं से मिली. मैं कारगिल शहीदों के उन बच्चों से भी मिली, जो अपने पिता की शहादत के समय इतने छोटे थे कि उनके दिमाग में अपने पिता से जुड़ी बहुत ज्यादा यादें शेष नहीं हैं. इन बच्चों के लिए अपने पिता गहरे हरे रंग के कपड़े पहने एक अजनबी से ज्यादा नहीं थे, जो एक दिन घर छोड़कर चले गए और फिर कभी वापस नहीं लौटे. जब मैंने कारगिल युद्ध में शहीद हुए लांस नायक बचन सिंह की पत्‍नी कामेश बाला ने उन्‍हें बताया कि यूं तो उनके विवाह को सात साल हो चुके थे, लेकिन उन्होंने अपने पति के साथ मुश्किल से पांच महीने ही बिताए. उनके पति को उम्मीद थी कि उनकी अगली पोस्टिंग किसी शांतिप्रिय जगह पर होगी, इसलिए उन्होंने उनसे वादा किया था कि ऐसा होने पर वह उनको और दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाएंगे, लेकिन वह दिन कभी नहीं आया. बचन सिंह 29 वर्ष की उम्र में तोलोलिंग के युद्ध में शहीद हो गए थे.

22 वर्षीय कैप्टन सौरभ कालिया ने कमीशन प्राप्त करने के ठीक बाद जीवन में पहली बार चेक पर हस्ताक्षर किए थे और गर्व के साथ उसे अपनी मांं को देते हुए कहा था, अब पैसों की चिंता मत करो. अब मैं कमाने लगा हूं. सौरभ की मां ने बताया था कि वह खारिज हुआ चेक मुझे दिखाया. वह चेक कभी भी भुनाया ही नहीं जा सका, क्योंकि सौरभ कालिया पहला वेतन बैंक खाते में आने से पहले ही शहीद हो गए थे.

लेखिका रचना बिष्‍ट रावत बताती हैं कि मैं कैप्टन हनीफुद्दीन की मां श्रीमती हेमा अजीज से भी मिली. तुरतुक में हनीफुद्दीन का शव 43 दिनों तक यूं ही बर्फ पर पड़ा रहा था. जब तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक ने श्रीमती अजीज के घर जाकर उन्हें बताया कि दुश्मन की तरफ से लगातार हो रही गोलीबारी के कारण वह उनके बेटे का शव तुरतुक से वापस नहीं ला पा रहे हैं तो श्रीमती अजीज ने जनरल मलिक को कहा कि वह अपने बेटे के शव के लिए किसी और जवान की जान को जोखिम में नहीं डालना चाहतीं. हनीफ की शहादत पर मिलनेवाले पेट्रोल पंप को लेने से भी उन्होंने इनकार कर दिया था.

जनरल वी.पी. मलिक कारगिल युद्ध के दौरान भारत की थलसेना के अध्यक्ष थे. अपनी पुस्तक ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्टरी’ में जनरल मलिक ने बताया है कि इस युद्ध में भारत की शानदार जीत के लिए सेना ने क्या-क्या रणकौशल अपनाए, किस-किस तरह की कुर्बानियां दीं. एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि वैसे तो कारगिल युद्ध पर अब तक बहुत सी किताबें लिखी गई हैं. लेकिन उनमें से ज्यादातर सुनी-सुनाई घटनाओं पर आधारित हैं. कारगिल पर मैं दो प्रामाणिक पुस्तकों का जिक्र करना चाहूंगा. एक तो खुद की किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्टरी’ और दूसरी लेफ्टिनेंट जनरल मोहिंदर पुरी की किताब ‘कारगिल: टर्निंग द टाइड’.

कारगिल युद्ध के समय लेफ्टिनेंट जनरल मोहिंदर पुरी 8-माउंटेन डिवीजन के प्रमुख थे. इस डिवीजन को द्रास और मुश्कोह सेक्टर से दुश्मनों को खदेड़ने का काम सौंपा गया था. अपनी किताब में लेफ्टिनेंट जनरल पुरी ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना के शौर्य और धैर्य का आंखों देखा हाल बयान किया है. लेफ्टिनेंट जनरल पुरी के अनुसार, तोलोलिंग पर कब्जा करने के लिए हमने कई प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली. वह लिखते हैं, “कई बार नाकाम रहने के बाद एक दिन मैंने अपने सैनिकों से शाम को फिर हमला करने को कहा. लेकिन सैनिकों को आदेश देने के बाद जब तक मैं अपने मुख्यालय पहुंच पाता, भारत तोलोलिंग चोटी पर कब्जा कर चुका था.” लेफ्टिनेंट जनरल पुरी ने 2-राजपूताना राइफल्स के कर्नल एमबी रवींद्रनाथ से पूछा कि यह सब कैसे हुआ? इस पर उन्होंने बताया कि बस एक हल्की-सी संभावना दिखी और हमने ताबड़तोड़ हमला शुरू कर दिया.

रचना बिष्‍ट अपनी किताब में उल्‍लेख करती हैं कि अपने पिता को लिखे अपने अंतिम पत्र में लेफ्टिनेंट विजयंत थापर ने उम्मीद जताई थी कि उनके साथी जवानों का त्याग कभी भी भुलाया नहीं जाएगा. क्‍या जनता अपने इन जांबाजों को की यादों को जीवित नहीं रखेगी? देश के लिए अपने प्राण प्रस्‍तुत करनेवाले जवानों के लिए हम कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं. उम्मीद है कि कारगिल युद्ध के 527 शहीद हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहेंगे.