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नीतीश पर निर्भरता, नेतृत्व का भी संकट; भाजपा के लिए आज भी अभेद्य दुर्ग है बिहार…

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बिहार में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। दो चरणों में चुनाव संपन्न होंगे। इस चुनाव में भाजपा और जेडीयू नीत गठबंधन एनडीए का आरजेडी-कांग्रेस नीत महागठबंधन से मुकाबला है।

चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने इस लड़ाई को तृकोणीय बनाने की कोशिश की है। एनडीए की बात करें तो इसका नेतृत्व इस चुनाव में भी नीतीश कुमार ही कर रहे हैं। भाजपा की निर्भरता अभी भी जेडीयू के मुखिया पर बनी हुई है।

बिहार के सियासी इतिहास पर नजर डालें तो 1990 तक राज्य में कांग्रेस का वर्चस्व रहा। बीच में केवल दो छोटे अंतराल (1967-72 और 1977-80) को छोड़कर। यही कारण है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा (BJP) अब तक बिहार में पूरे राज्य में व्यापक जनसमर्थन नहीं बना सकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरे कार्यकाल और पड़ोसी उत्तर प्रदेश में 2017 से भाजपा सरकार होने के बावजूद बिहार भाजपा के लिए अब भी एक ‘अभेद्य दुर्ग’ बना हुआ है।

नीतीश पर निर्भर भाजपा

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, “बिहार में कम्युनिस्ट, समाजवादी और जनसंघ/भाजपा का उदय कांग्रेस के प्रभुत्व वाले दौर में एक साथ हुआ। फिर भी भाजपा ‘संपूर्ण बिहार’ की पार्टी नहीं बन सकी। नीतीश कुमार पर 20 वर्षों से निर्भर रहना इस बात का सबूत है।”

उन्होंने बताया कि शाहाबाद (भोजपुर, रोहतास, कैमूर, बक्सर) और मगध (औरंगाबाद, गया, जहानाबाद, अरवल) जैसे क्षेत्र समाजवादी और वामपंथी आंदोलनों के केंद्र रहे हैं। भाजपा की 2020 विधानसभा चुनाव में यहां की 21 सीटों में सिर्फ दो पर जीत और पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीत पाना इसकी सीमा दर्शाता है। मणि कहते हैं, “कोसी बेल्ट (सहरसा, सुपौल, मधेपुरा) में नीतीश प्रभावशाली हैं, जबकि लालू प्रसाद यादव अब भी अपने मूल मुस्लिम-यादव वोट बैंक पर कायम हैं। इन परिस्थितियों में भाजपा को बिहार में सत्ता साझेदारी की जरूरत बनी हुई है।”

1950 के दशक में भारतीय जनसंघ ने 1952 और 1957 के चुनावों में एक भी सीट नहीं जीती थी। पहली सफलता 1962 में मिली, जब उसने तीन सीटें सिवान, मुंगेर और नवादा जीतीं। 1967 में कांग्रेस विरोधी लहर के दौरान समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया और आरएसएस प्रमुख एम. एस. गोलवलकर की समझदारी से संयुक्त विधायक दल (SVD) सरकार बनी। इसमें जनसंघ को 26 सीटें मिलीं और तीन मंत्री रामदेव महतो, विजय कुमार मित्रा और रुद्र प्रताप सारंगी बने।

1977 में जेपी आंदोलन के बाद जनसंघ, लोकदल और समाजवादी दलों का विलय होकर जनता पार्टी बनी, जिसने 325 में से 214 सीटें जीतीं और कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। 1980 में भाजपा के रूप में पुनर्गठित जनसंघ को अगले तीन चुनावों (1980, 1985, 1990) में सीमित सफलता मिली। 1990 के बाद लालू प्रसाद यादव के उभार ने भाजपा को और पीछे धकेल दिया।

भाजपा को वास्तविक राजनीतिक बढ़त तब मिली जब उसने नीतीश कुमार की जेडीयू से गठबंधन किया। 2000 में एनडीए को बहुमत न मिलने के बावजूद सरकार बनी पर संख्या बल की कमी से सात दिन में गिर गई। इसके बाद 2005 में भाजपा-जेडीयू गठबंधन ने सत्ता संभाली और भाजपा धीरे-धीरे राज्य में मजबूत हुई। लेकिन आज भी पार्टी को नीतीश पर निर्भर रहना पड़ता है।

नेतृत्व का संकट

भाजपा के एक धड़े का मानना है कि बिहार में पार्टी की सीमित पकड़ का कारण है स्थानीय नेतृत्व की कमी है। कभी कैलाशपति मिश्र, ठाकुर प्रसाद, गोविंदाचार्य और अश्विनी कुमार जैसे नेता पार्टी का चेहरा थे पर अब वैसा प्रभावशाली नेतृत्व नहीं बचा। एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, “सुशील कुमार मोदी के बाद हम लगातार प्रयोग कर रहे हैं। तारकिशोर प्रसाद, रेणू देवी, सम्राट चौधरी या विजय सिन्हा कोई भी नीतीश कुमार के स्तर पर नहीं टिक पाया। हम नेतृत्वहीन हो गए हैं।”

उन्होंने आगे कहा, “2014 की मोदी लहर के बाद भी 2015 विधानसभा चुनाव में हमें सिर्फ 53 सीटें मिलीं। 2020 में 74 सीटें जीतने के बावजूद हमने मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार को दे दिया। अब अगर जेडीयू को 55-60 सीटें मिलती हैं तो नीतीश कुमार ही फिर मुख्यमंत्री बनेंगे।”