“वंदे मातरम्” -यह केवल एक गीत नहीं, यह भारत की आत्मा है। यह वह पुकार थी जिसने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ीं, यह वह मंत्र था जिसने अनगिनत क्रांतिकारियों को शहादत की राह पर भेजा।
लेकिन दुर्भाग्य देखिए, उसी “वंदे मातरम्” को, जिसे गाते हुए लाखों लोगों ने फाँसी के फंदे को चूमा, उसे 1937 में “खंडित” कर दिया गया था।और यह किया गया था पंडित जवाहरलाल नेहरू के आदेश पर, सिर्फ़ और सिर्फ़ जिन्ना को खुश करने के लिए।
यह था भारत के इतिहास का सबसे बड़ा आत्मघाती तुष्टिकरण। बताया जाता है कि 1937 में जब जिन्ना ने कहा कि “वंदे मातरम् मुसलमानों को चुभता है,”
तब कांग्रेस के तत्कालीन नेता जवाहरलाल नेहरू झुक गए थे। उन्होंने राष्ट्रगीत के तीन पैराग्राफ को हटा दिया था। ये पैराग्राफ माँ भारती की महिमा, शक्ति और वैभव का वर्णन करते थे। तर्क दिया गया था कि ये पैराग्राफ “हिंदू प्रतीकों” से भरे हैं, इसलिए मुस्लिम लीग असहज है। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज़ादी का आंदोलन केवल किसी एक मज़हब का आंदोलन था?
नेहरू ने उस समय “वंदे मातरम्” गीत के शब्दों को ही नहीं काटा था, बल्कि राष्ट्र की आत्मा को भी आघात पहुँचाया था।
देखा जाए तो उसी क्षण भारत की राजनीति में “तुष्टिकरण” का बीज बोया गया, जो आगे चलकर विभाजन के रक्तरंजित पेड़ के रूप में पनपा। प्रधानमंत्री मोदी ने आज ठीक यही बात दोहराई कि “वंदे मातरम् का विभाजन ही देश के विभाजन का बीज था।”
मोदी का यह वक्तव्य एक राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक घोषणापत्र था- कि भारत अब आत्मगौरव से समझौता नहीं करेगा। आज की कांग्रेस वही गलती दोहरा रही है, जब राहुल गांधी खुले मंचों पर “वंदे मातरम्” को एक लाइन में सीमित करने की बात करते हैं। यह वही मानसिकता है जिसने कभी जिन्ना को मनाने के लिए भारत की आत्मा को चोट पहुँचाई थी।
विरोध आस्था का नहीं, अलगाव की राजनीति का नशा!
यह दुखद है कि आज भी कुछ मुस्लिम नेता “वंदे मातरम्” को इस्लाम-विरोधी कहकर इसका विरोध करते हैं। AIMIM के नेता खुलेआम कहते हैं कि “बंदूक की नली पर भी वंदे मातरम् नहीं बोलेंगे।”
सवाल उठता है कि क्या यह आस्था का सवाल है, या अलगाव की राजनीति का नशा?
उसी मुस्लिम समाज के भीतर से आने वाले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, रफ़ी अहमद किदवई, और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे विद्वान इसे भारत की आध्यात्मिक एकता का प्रतीक मानते रहे हैं। एआर रहमान ने इसे विश्व मंच पर माँ भारती की वंदना के रूप में प्रस्तुत किया।
आज अगर कुछ लोग इसे “मज़हबी” चश्मे से देखते हैं, तो दोष गीत का नहीं, दृष्टिकोण का है। जिन्होंने इसका विरोध किया, वही अंततः पाकिस्तान के निर्माण की मांग लेकर आए। और जिन्होंने “वंदे मातरम्” गाया, वही भारत की अखंडता के रक्षक बने।
नेहरू की गलती केवल तीन पदों को हटाने की नहीं थी, बल्कि यह मान लेने की थी कि राष्ट्र की भावना को वोट बैंक के आगे झुकाया जा सकता है।
जो लोग आज भी “वंदे मातरम्” से ऐतराज़ रखते हैं, उन्हें समझना होगा कि “भारत माता” को प्रणाम करना किसी धर्म की वंदना नहीं, बल्कि उस भूमि के प्रति कृतज्ञता है जिसने हमें जन्म दिया। वंदे मातरम्-यही भारत की पहचान है, यही उसकी आत्मा है, और यही उसका भविष्य।



