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“छठ को यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में शामिल करने से क्या-क्या बदलेगा? PM मोदी के बयान से चर्चा शुरू”

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बिहार विधान सभा चुनाव से गदगद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोक आस्था के पर्व छठ पर्व को यूनेस्को की हेरिटेज सूची में शामिल कराने के प्रयासों के बारे में बात की. वे नई दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे.

उन्होंने कांग्रेस और आरजेडी पर तंज भी कसा कि इनके नेताओं ने अभी तक छठ मैया से माफी भी नहीं मांगी है.

ऐसे में यह जानना जरूरी है कि अगर केंद्र सरकार छठ पर्व को यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में शामिल करवा पाती है तो असल में क्या-क्या बदलेगा? तब इसका स्वरूप कैसा हो जाएगा? आइए, पीएम की इस घोषणा के बहाने समझते हैं.

लोक आस्था का पर्व छठ

छठ पर्व आज केवल एक धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं रह गया है, बल्कि यह लोक आस्था, प्रकृति के प्रति सम्मान और सामाजिक समरसता का अनोखा उदाहरण है. साल-दर-साल इस पर्व की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. पर्व विस्तार ले रहा है. देश का शायद ही कोई राज्य हो जहां छठ पर्व न मनाया जाता हो. इसे यदि यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में (इंटैन्जिबल कल्चरल हेरिटेज / अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर) की सूची में शामिल किया जाता है, तो इसका प्रभाव केवल बिहार या पूर्वी भारत तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सकारात्मक बदलाव दिखेंगे.

यूनेस्को सूची में शामिल करने का मतलब

यूनेस्को (UNESCO) संयुक्त राष्ट्र की वह संस्था है जो शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति के संरक्षण के लिए काम करती है. जब कोई त्योहार, लोक-कला, परंपरा या ज्ञान प्रणाली यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल होती है, तो इसका अर्थ होता है कि वह परंपरा मानव सभ्यता के लिए महत्वपूर्ण मानी गई है. उसे बचाने, संजोने और आगे की पीढ़ियों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी केवल उस क्षेत्र की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की मानी जाती है. उस परंपरा के दस्तावेज़ीकरण, शोध और संरक्षण के लिए अतिरिक्त सहयोग और ध्यान मिलता है. यदि छठ पर्व को यह दर्जा मिलता है, तो इसे एक वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी मान्यता मिलेगी.

छठ पर्व के यूनेस्को हेरिटेज बन जाने से क्या-क्या बदलेगा?

  • वैश्विक पहचान और सम्मान में वृद्धि:

अभी छठ मुख्य रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और प्रवासी भारतीय समुदायों के बीच मनाया जाता है. यूनेस्को की सूची में आने के बाद दुनिया के अलग-अलग देशों के लोग इस पर्व के बारे में जानेंगे. छठ को केवल स्थानीय या क्षेत्रीय त्योहार नहीं, बल्कि विश्व-स्तरीय सांस्कृतिक धरोहर के रूप में देखा जाएगा. यह बिहार और पूर्वी भारत की सांस्कृतिक पहचान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मजबूत करेगा.

  • संरक्षण और शुद्धता पर ज़्यादा ध्यान:

छठ की खासियत इसकी सादगी, पवित्रता और अनुशासन है. यूनेस्को दर्जा मिलने के बाद सरकार और समाज दोनों पर यह नैतिक दबाव बढ़ेगा कि छठ की मूल भावना और पारंपरिक रूप बरकरार रहे. नदी-घाटों की साफ-सफाई, प्रदूषण पर नियंत्रण, कृत्रिम रंग और प्लास्टिक के उपयोग पर रोक जैसे कदमों पर अधिक गंभीरता से काम किया जाएगा. पारंपरिक गीत, लोककथाएं, मान्यताएं और छठ से जुड़े लोक-संगीत का व्यवस्थित रिकॉर्ड और दस्तावेज़ तैयार किया जा सकेगा.

  • पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा:

जब कोई पर्व या स्थान यूनेस्को की सूची में आता है, तो देश-विदेश से पर्यटक और शोधकर्ता उससे जुड़ने आते हैं. छठ के समय पटना, गया, देव (औरंगाबाद), भागलपुर, मुज़फ्फरपुर जैसे शहरों में धार्मिक पर्यटन बढ़ सकता है. स्थानीय कारीगरों, दुकानदारों, फल-सब्जी विक्रेताओं, परिवहन सेवा और होटल-धंधे को आर्थिक लाभ होने की संभावना बनेगी. पर्यटन बढ़ने से रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं.

  • शोध, अध्ययन और दस्तावेज़ीकरण में तेजी:

विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और सांस्कृतिक संगठनों में छठ पर शोध कार्य बढ़ेगा. छठ के ऐतिहासिक विकास, लोकविश्वास, गीत-संगीत, महिला-केन्द्रित भूमिका और पर्यावरणीय दृष्टिकोण पर गंभीर अध्ययन होंगे. इससे नई पीढ़ी के लिए छठ केवल करने वाला पर्व नहीं, बल्कि समझने और सीखने वाली परंपरा बन सकेगा.

  • प्रवासी भारतीय समुदायों के लिए गर्व का विषय:

दुनिया भर में बसे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग छठ को बहुत श्रद्धा से मनाते हैं. यूनेस्को की मान्यता उन्हें अतिरिक्त सांस्कृतिक आत्मविश्वास देगी. विदेशों में छठ-समारोह अधिक व्यवस्थित और मान्यता प्राप्त रूप में हो सकेंगे.

क्या बिहार का कोई स्थान या इमारत पहले से यूनेस्को की सूची में है?

हां, बिहार के कुछ बेहद महत्वपूर्ण स्थल यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में पहले से शामिल हैं. यह दिखाता है कि यह क्षेत्र ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से कितना समृद्ध है.

बोधगया  एक:

महाबोधि मंदिर, बोधगया यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है. इसे साल 2002 में शामिल किया गया था. यही वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया था. यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए विश्व का एक प्रमुख तीर्थस्थल है. मंदिर की स्थापत्य कला, शांति का वातावरण और ऐतिहासिक महत्व इसे वैश्विक स्तर पर अत्यंत विशिष्ट बनाते हैं. यूनेस्को सूची में शामिल होने के बाद यहां पर्यटन, संरक्षण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग पहले से अधिक बढ़ा है.

नालंदा. दो:

नालंदा महाविहार (पुरातात्त्विक अवशेष): नालंदा का प्राचीन विश्वविद्यालय, जिसे नालंदा महाविहार कहा जाता है, भी यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है. इसे साल 2016 में शामिल किया गया. यह प्राचीन काल में विश्व के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक था. यहां दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से विद्यार्थी और विद्वान अध्ययन करने आते थे. आज नालंदा के खंडहर हमें उस गौरवशाली शैक्षिक परंपरा की याद दिलाते हैं, जो ज्ञान के मुक्त आदान-प्रदान पर आधारित थी. यूनेस्को दर्जा मिलने के बाद नालंदा के संरक्षण, व्यवस्थित खुदाई, संग्रहालय और पर्यटन सुविधाओं में सुधार हेतु लगातार काम हो रहा है.

यूनेस्को हेरिटेज लिस्ट और बिहार की छवि

महाबोधि मंदिर और नालंदा महाविहार के यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल होने से बिहार की यह पहचान बनी है कि यह केवल एक पिछड़ा या प्रवासी-आधारित राज्य नहीं, बल्कि प्राचीन ज्ञान, अध्यात्म, बौद्ध धर्म, शिक्षा और संस्कृति का वैश्विक केन्द्र रहा है. यदि छठ पर्व भी यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल हो जाता है, तो यह बिहार की आधुनिक सांस्कृतिक पहचान को भी उतनी ही मजबूती से सामने रखेगा, जितनी ऐतिहासिक स्थल रखते हैं.

छठ और यूनेस्को, समाज के स्तर पर संभावित बदलाव

यदि छठ को यूनेस्को की हेरिटेज लिस्ट में शामिल किया जाए, तो समाज में कुछ और सकारात्मक बदलाव भी देखे जा सकते हैं. छठ में जाति, वर्ग, धर्म, अमीरी-गरीबी का भेद कम हो सकता है. यूनेस्को की मान्यता के बाद यह पर्व समावेशी समाज का वैश्विक उदाहरण बन सकता है. महिलाओं की भूमिका पर नया विमर्श संभावित है. छठ में व्रत धारण करने वाली महिलाएँ परिवार और समाज के केन्द्र में रहती हैं. इस पर्व के अध्ययन से महिलाओं की सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका पर नई सकारात्मक बहसें जन्म लेंगी. पर्यावरण के प्रति जागरूकता भी बढ़ सकती है. छठ का मूल भाव सूर्य, जल और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता है. यदि इसे वैश्विक मंच पर पर्यावरण-उन्मुख त्योहार के रूप में प्रस्तुत किया जाए, तो लोगों में नदियों और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के प्रति अधिक जागरूकता पैदा होगी.