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लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा, क्या खत्म है मायावती की राजनीति?

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लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा, क्या खत्म है मायावती की राजनीति?

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासत में बसपा प्रमुख मायावती के अकेले चुनाव लड़ने के फैसले ने उनकी पार्टी का यूपी में पूरी तरह से सफाया हो गया है.

बीएसपी को अपने अब तक के सियासी इतिहास में सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा है. बसपा 10 से फिर एक बार शून्य पर सिमट गई. बीएसपी के लिए सबसे चौंकाने वाली बात यह भी है कि उससे दलित वोटबैंक छिटक गया. सूबे में कभी दलितों की एकछत्र नेता रहीं मायावती 2024 के चुनाव में 10 फीसदी से कम वोट लेने में कामयाब हो पाईं तो दूसरी तरफ दलित राजनीति उभरते चेहरे चंद्रशेखर नगीना से सांसद बनने में कामयाब रहे. ऐसे में अब सवाल उठ रहा है कि क्या मायावती की सियासत खत्म होने के कगार पर पहुंच गई है?

बसपा संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में दलित राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया, जिसका नतीजा रहा कि मायावती 1995 में मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रही. 2007 में बसपा ने पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाने में सफल रही, लेकिन यहीं से मायावती का सियासी आधार खिसकना भी शुरू हुआ. साल 2012 में सत्ता गंवाने के बाद से बसपा सियासी हाशिए पर चलती चली जा रही है, उसने मायावती को बेचैन कर दिया है. 2022 में बसपा के एक विधायक का जीतना और 2024 में खाता न खुलना. यूपी की सियासत में मायावती एक अदना सी प्लेयर बन गई हैं.

गठबंधन न करने का मायावती को नुकसान

2024 के नतीजों से साफ जाहिर है कि मायावती को गठबंधन न करने का नुकसान हुआ है. 2019 में मायावती की बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया. इसका असर यह हुआ कि 2014 में जीरो पर आउट हुई बसपा ने 2019 में 10 सीटों पर जीत दर्ज कर ली. मायावती का वोट प्रतिशत भी 20 फीसदी के करीब पहुंच गया था. लेकिन 2022 का चुनाव मायावती अकेले लड़ीं और करीब 13 फीसदी वोट पाकर सिर्फ एक सीट जीत पाईं.

2024 में भी मायावती अकेले लड़ीं. उनके पास INDIA गठबंधन में शामिल होने का कांग्रेस की ओर से लगातार ऑफर था, लेकिन वह नहीं मानी. इतना ही नहीं मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने भी 2024 में गठबंधन के साथ उतरने का सुझाव दिया था. इसके लिए उन्होंने एक इंटरनल सर्वे का भी हवाला देते हुए कहा था कि कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो बसपा 45 सीटें देशभर में जीत सकती है. आकाश आनंद की बात को न ही बसपा प्रमुख ने तवज्जे दिया और न ही पार्टी के नेताओं ने अहमियत दी. अब नतीजे आए तो इसे मायावती की चूक की तरह देखा जा रहा है, क्योंकि बसपा का न केवल जीरो पर आउट हुई, बल्कि उसका वोट शेयर भी 3 फीसदी गिर गया. पूरे देश में बसपा का वोट प्रतिशत 1.5 फीसदी के करीब गिरा है. मायावती के वोट प्रतिशत में गिरावट इस ओर इशारा करती है कि अब दलितों का भी बसपा से मोहभंग हो रहा है.

दलितों पर मायावती की पकड़ हो रही है ढीली

यूपी में दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती मानी जाती थीं, लेकिन चुनाव दर चुनाव उनका वोटबैंक छिटकता जा रहा है. यूपी में दलितों की आबादी करीब 20 फीसदी है. इस वोटबैंक को बसपा का बेस वोट माना जाता था, लेकिन इस वोटबैंक में पहले बीजेपी और अब सपा ने बड़ी सेंधमारी कर दी है. पिछले 10 साल में पासी का एक बड़ा वोटबैंक बीजेपी के साथ जुड़ा है, जबकि इस चुनाव में कुछ जाटव वोट सपा की तरफ खिसक गया. यानि मायावती का दलित वोट बंट गया है.

जमीनी कार्यकर्ताओं से कटती गईं मायावती

यूपी में बसपा के ढलान की सबसे बड़ी वजह मायावती का जमीनी कार्यकर्ता से जुड़ाव कम होना है. पिछले 10 सालों में मायावती जमीन से कटती चली गई और बसपा जमीन पर आती चली गई. इस बीच कई पुराने बसपा नेताओं ने पार्टी छोड़ी दी और सबका आरोप था कि बसपा अब बीजेपी की बी-टीम बन गई है. अखिलेश यादव ने इसका फायदा उठाया और बसपा के बड़े नेताओं को सपा में शामिल करा लिया. इनमें लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, बाबू सिंह कुशवाहा शामिल हैं.

बसपा के कैडर टूटने का असर पार्टी पर पड़ा और उसकी जमीन पर पकड़ ढीली पड़ने लगी. इसका नतीजा हुआ कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा महज एक सीट जीत पाई और 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपना खाता नहीं खोल पाई. हालांकि बसपा के पास अभी भी करीब 10 फीसदी वोट बना हुआ है. ऐसे में यह कहना गलत होगा कि मायावती की राजनीति खत्म हो गई है.