“इन चार गांवों में पहली बार फहराया गया तिरंगा, आजादी के बाद लगभग 8 दशक का इंतजार”
उत्तर महाराष्ट्र के नंदुबार जिले के आदिवासी गांव उदाड्या में आजादी के लगभग आठ दशक के बाद पहली बार तिरंगा फहराया गया है। सतपुड़ा की घनी पहाड़ियों के बीच बसे इस गांव में जहां पर अब तक बिजली भी नहीं पहुंची मोबाइल नेटवर्क की कभी-कभार ही पहुंच पाता है।
वहां पर एक एनजीओ ने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से 30 बच्चों और गांव वालों के साथ मिलकर यह काम किया। मुंबई से करीब 500 किलोमीटर और सबसे नजदीकी तहसील से लगभग 50 किलोमीटर दूर बसे इस छोटे से गांव में करीब 400 लोग रहते हैं। यहां कोई सरकारी स्कूल, ग्राम पंचायत दफ्तर भी नहीं है इसीलिए यहां पर कभी भी तिरंगा नहीं फहराया गया। इन बच्चों की मदद के लिए यहां पर एक वाईयूएनजी फाउंडेशन के नाम से एनजीओ काम करता है, जो बच्चों को पढ़ाई में भी मदद करता है।
इस क्षेत्र में तीन वर्षों से बच्चों की पढ़ाई लिखाई में मदद कर रहे इस एनजीओ ने इस साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर चार छोटे-छोटे गांवों उदाड्या, खपरमाल, सदरी और मंझनीपड़ा में तिरंगा फहराने का फैसला किया। इसके बाद इन चारों गांवों के एनजीओ वाले स्कूलों में पढ़ने वाले 250 बच्चे और स्थानीय लोगों के साथ मिलकर पहली बार तिरंगा फहराया गया।
एनजीओ के संस्थापक संदीप देओरे ने कहा, “यह इलाका प्राकृतिक सुंदरता, उपजाऊ मिट्टी और नर्मदा नदी से समृद्ध है। लेकिन पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां तक पहुंचना काफी मुश्किल होता है। हमारी इस पहल का मकसद सिर्फ पहली बार झंडा फहराना नहीं था, बल्कि स्थानीय लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में भी जागरूक करना था। ” उन्होंने कहा, “यहां के आदिवासी बहुत आत्मनिर्भर जीवन जीते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे सभी हमारे संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों को जानते हों। बाहर मजदूरी करते समय या फिर रोजमर्रा के लेन-देन में अकसर इन लोगों का शोषण होता है या इन्हें लूटा जाता है।”
एक स्थानीय निवासी भुवान सिंह पावरा ने बताया कि गांव के लोग दूसरे इलाकों तक पहुंचने के लिए या तो कई घंटे पैदल चलते हैं या फिर नर्मदा नदी में संचालित नौका का प्रयोग करते हैं। भुवन ने कहा कि यहां एनजीओ का स्कूल उनकी जमीन पर चलता है। शिक्षा की कमी यहां सबसे बड़ी समस्या है, और वह नहीं चाहते की अगली पीढ़ी भी इसी तकलीफ से गुजरे। इन गांवों में अब तक बिजली नहीं पहुंची है, इसलिए ज्यादातर घर सोलर पैनल पर ही निर्भर हैं।
यहां के लोग पावरी बोली बोलते हैं, जो सामान्य मराठी या हिंदी से काफी अलग है जिससे बाहरी लोगों के लिए उनसे संवाद करना मुश्किल होता है। देओरे ने बताया कि शुरुआत में लोगों का विश्वास जीतना कठिन था, लेकिन जब वे इस काम के उद्देश्य को समझ गए, तो उनका सहयोग आसान हो गया। यह एनजीओ अपने शिक्षकों के वेतन और स्कूलों के लिए बुनियादी ढांचे की व्यवस्था के लिए दान पर निर्भर है। लेकिन ये स्कूल अनौपचारिक होने के कारण यहां सरकारी स्कूलों की तरह मध्याह्न भोजन योजना लागू नहीं की जा सकती।
सरकार द्वारा नियुक्त आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अकसर इन दूरदराज के गांवों में नहीं आते। हालांकि, कई जगह स्थिति अलग है जैसे खपरमाल की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आजमीबाई अपने गांव में ही रहती हैं और ईमानदारी से अपना काम करती हैं।