घने जंगलों की सघनता, जहां कभी गोलियों की गूंज और खून की नदियां बहा करती थीं, आज विकास की रोशनी बिखर रही हैं. छत्तीसगढ़ के जगदलपुर, सुकमा, दंतेवाड़ा, नारायणपुर और बीजापुर जैसे इलाकों से नक्सलवाद का काला साया धीरे-धीरे मिट रहा है. पिछले एक साल में 300 से अधिक नक्सलियों का सफाया, 1,100 से ज्यादा गिरफ्तारियां और 1,000 के करीब आत्मसमर्पण-ये आंकड़े न सिर्फ एक अभियान की सफलता की कहानी कहते हैं, बल्कि एक ऐसी क्रांति की गवाही देते हैं जो केंद्र की रणनीतिक ताकत और राज्य की अटल इच्छाशक्ति का अनोखा संगम है. लेकिन इस विजय के पीछे की कहानी में एक अनकही सच्चाई छिपी है-राज्य सरकार की भूमिका को मीडिया ने उतना ही महत्व दिया जितना जंगल की छांव में छिपे एक पत्ते को. केंद्र की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन प्रदेश की दृढ़ता ने ही इस सफाए को इतना बड़ा और निर्णायक बनाया है. इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
नक्सलवाद, जो 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से जन्मा था, छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के छह जिलों को अपनी सबसे बड़ी चुनौती के रूप में जकड़ चुका था. 2000 में राज्य के गठन के बाद से यह ‘रेड कॉरिडोर’ का केंद्र बन गया. 2010 में नक्सली हिंसा के 47 प्रतिशत घटनाएं यहीं दर्ज की गईं. अबूझमाड़ के जंगलों में छिपे ये उग्रवादी न सिर्फ विकास को रोकते थे, बल्कि आदिवासी समुदायों को भी अपने जाल में फंसा लेते थे. लेकिन 2023 के अंत में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद सीन बदल गया. मुख्यमंत्री विष्णु देव साय और उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा के नेतृत्व में राज्य ने नक्सलियों के खिलाफ ‘ऑपरेशन कागर’ और ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ जैसे अभियानों को नई गति दी. मई 2025 में कर्रेगुट्टा हिल्स में चले 21 दिवसीय ऑपरेशन में 31 नक्सलियों का सफाया हुआ, जो अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन था.
केंद्र सरकार की भूमिका यहां नकारना असंभव है. गृह मंत्री अमित शाह ने 2019 से ही ‘नक्सल-मुक्त भारत’ का संकल्प लिया है. उन्होंने 11 समीक्षा बैठकें आयोजित कीं, जिसमें केंद्रीय सुरक्षा बलों की 60 बटालियनें छत्तीसगढ़ में तैनात की गईं. 2024 से 2025 के बीच 237 नक्सलियों को निष्प्रभावी किया गया, जिसमें केंद्रीय एजेंसियों की खुफिया जानकारी और हथियारों की आपूर्ति महत्वपूर्ण रही. शाह का बार-बार दौरा-रायपुर से बस्तर तक-ने न सिर्फ सुरक्षा बलों का मनोबल बढ़ाया, बल्कि विकास परियोजनाओं को भी गति दी. स्वच्छ भारत अभियान, आयुष्मान भारत योजना और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत लाखों आदिवासियों को लाभ पहुंचा. मार्च 2026 तक नक्सलवाद उखाड़ फेंकने का लक्ष्य केंद्र की रणनीति का हिस्सा है, और छत्तीसगढ़ इसमें अग्रणी है. बिना केंद्रीय सहायता के राज्य अकेला यह लड़ाई नहीं लड़ सकता था.
फिर भी, इस सफलता का एक बड़ा हिस्सा राज्य की इच्छाशक्ति का है, जो मीडिया की सुर्खियों में कम ही उभरा है. भाजपा सरकार ने नक्सलियों को ‘हमारी सरकार’ कहने की पुरानी मानसिकता को तोड़ा. डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई, जो स्थानीय आदिवासी युवाओं से बनी है. इन युवाओं ने जंगलों की हर गली-कूची को जाना-पहचाना. जनवरी 2024 से फरवरी 2025 तक 985 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जो राज्य की पुनर्वास नीति का कमाल है. उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने कहा, “यह आत्मसमर्पण सिर्फ हथियार डालने का नहीं, बल्कि विकास की मुख्यधारा में शामिल होने का संकेत है.” राज्य ने 1,214 डाकघर, 297 बैंक शाखाएं और 268 एटीएम खोले, जो नक्सल प्रभावित इलाकों में वित्तीय समावेशन लाए. बस्तर को नक्सल प्रभावित जिलों की सूची से हटा दिया गया-यह राज्य की दृढ़ता का प्रमाण है. लेकिन मीडिया में ये कहानियां केंद्र की चकाचौंध में दब गईं. एक स्थानीय पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “केंद्र की बड़ी घोषणाएं तो सुर्खियां बनती हैं, लेकिन राज्य की जमीनी मेहनत को भुला दिया जाता है.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2025 में बिलासपुर रैली में कहा, “कांग्रेस की नीतियों ने दशकों तक नक्सलवाद को बढ़ावा दिया. पिछड़े इलाकों में विकास न होने से नक्सल फला-फूला.” पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के कार्यकाल में नक्सली ‘हमारी सरकार’ कहते थे, और शांति वार्ता की बातें होती थीं. सलवा जुडुम महेंद्र कर्मा जैसे आदिवासी नेता की महत्वाकांक्षी सोच थी. जिसे विवादास्पद बना कर नक्सल ईको सिस्टम और अर्बन नक्सल ने सफल नहीं होने दिया. बाद में नक्सलियों ने 2013 के दर्भा घाटी हमले में एक दर्जन से अधिक कांग्रेस नेताओं के साथ महेंद्र कर्मा की नृशंस हत्या की. कांग्रेस पर नक्सलियों को संरक्षण देने के आरोप भी लगे. पूर्व भाजपा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने आरोप लगाया कि कांग्रेस सरकार में नक्सली घुसपैठिए थे. मीडिया में नक्सलियों को ‘रोबिन हुड’ बनाने की प्रवृत्ति थी-उनके इंटरव्यू प्रसारित होते, और आंदोलनकारी गिरोह उनकी सहानुभूति दिखाते. लेकिन अब, जब सफाया हो रहा है, अर्बन नक्सल ईको सिस्टम चुप हैं.
यह सच है कि अब नक्सलवाद का ग्रामीण चेहरा मिट रहा है, लेकिन इसका शहरी अवतार-‘अर्बन नक्सल’-आज भी एक बड़ी चुनौती है. नक्सली दस्तावेज, जैसे सीपीआई (माओइस्ट) के आंतरिक पत्र, साफ बताते हैं कि अब उनका उद्देश्य जंगलों से निकलकर शहरों और महानगरों में जहर फैलाना है. 1980 के दशक से उभरा यह ‘इंटेलेक्चुअल वॉर’ शिक्षा संस्थानों, मीडिया और राजनीति में घुस चुका है. इनकी विचारधारा से प्रभावित होकर जेएनयू, जादवपुर यूनिवर्सिटी जैसे केंद्रों से निकले युवा विभिन्न राजनीतिक दलों के आईटी सेल, बौद्धिक प्रकोष्ठों में जगह बना रहे हैं. विवेक अग्निहोत्री की किताब ‘अर्बन नक्सल्स’ इसे उजागर करती है-शहरी बुद्धिजीवी नक्सलियों को वैचारिक समर्थन देते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने मार्च 2025 में कहा, “जंगल से नक्सलवाद गायब हो रहा, लेकिन शहरों में जड़ें जमा रहा है. कुछ राजनीतिक दलों में अर्बन नक्सल घुस चुके हैं.” हाल के वर्षों में भारत की राजनीति में अराजकता का स्वर-शाहीन बाग जैसे आंदोलनों से-इस संदेह को गहरा बनाता है. महाराष्ट्र सरकार ने ‘अर्बन नक्सल’ विरोधी बिल लाने की तैयारी की है.
पिछले कुछ सालों में राजनीति में आई अस्थिरता-विपक्षी दलों के आईटी सेल से निकलने वाली अफवाहें, सोशल मीडिया पर उकसावे-यह संकेत देती है कि अर्बन नक्सल अपनी जगह बना चुके हैं. एक खुफिया रिपोर्ट के अनुसार, 250 से अधिक संकाय सदस्य विश्वविद्यालयों में उग्रवादी विचारों का प्रचार कर रहे हैं. ये लोग कानूनी सहायता, फंडिंग और प्रचार से नक्सलियों को मजबूत करते हैं. छत्तीसगढ़ में सफलता के बावजूद, अगर शहरी मोर्चा न संभाला गया, तो जंगल की जीत व्यर्थ हो जाएगी. राज्य सरकार ने अब अर्बन नक्सल पर नजर रखने के लिए विशेष इकाई गठित की है.
इस सफर में आदिवासी समुदाय की भूमिका सराहनीय है. बस्तर ओलंपिक जैसे आयोजनों से नक्सल प्रभावित युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ा गया. 1,143 युवाओं को बस्तरिया बटालियन में भर्ती किया गया. विकास परियोजनाएं-रेल, सड़क, बिजली – 33,700 करोड़ की लागत से शुरू हुईं. लेकिन एनजीओ कर्मी हिमांशु कुमार जैसे लोग सवाल उठाते हैं: क्या एन्काउंटरों में निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं? जनवरी 2025 में बीजापुर में एक छह माह की बच्ची की मौत ने विवाद खड़ा किया. सरकार का कहना है कि ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हैं, लेकिन जांच जरूरी है. स्थानीय पुलिस, आदिवासी समाज और सेना को मिलकर संवेदनशीलता के साथ जंगल में ऑपरेशन को अंजाम देना होगा. जिससे निर्दोष शिकार ना हो और नक्सलियों के प्रोपगेंडा मशीनरी को अफ़वाह फैलाने का अवसर ना मिले.
अंत में, छत्तीसगढ़ की यह जीत साबित करती है कि केंद्र की मजबूत रीढ़ के बिना यह सफलता हासिल नहीं होती, लेकिन राज्य की इच्छाशक्ति ने ही इसे उड़ान दी. मीडिया को अब इस संतुलन को उजागर करना चाहिए क्योंकि असली श्रेय तो जमीनी सिपाहियों और आदिवासी बहनों का है, जो जंगल की हर शाखा पर विकास की बीज बो रही हैं. मार्च 2026 नजदीक आ रहा है; नक्सल-मुक्त भारत का सपना साकार होने को है. लेकिन सतर्क रहना होगा क्योंकि जंगल शांत हो चुके हैं, शहर अभी जाग रहे हैं