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“‘ये 500 वाला रावण कितने का है जी…’, दिल्ली की ‘लंकेश मंडी’ में क्या चल रहा”

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भइया, 300 में दे दो ना… ‘ना-ना! 500 का है, 350 से नीचे एकदम घाटा!’

दिल्ली की रावण मंडी में इस वक्त यही महाभारत चल रही है. सौदेबाजी इतनी तगड़ी कि खुद रावण भी अगर यहां आ खड़ा हो जाए तो माथा पकड़कर सोचने लगे, ‘ भइया, जलना तो मुझे था, जल तो तुम्हारी जेब रही है .’

ये मंडी है वेस्ट दिल्ली के तितारपुर की, जिसे ‘एशिया की सबसे बड़ा पुतला मार्केट’ कहा जाता है. यहां पुतलों के कद देखकर खरीदारों का अहंकार अक्सर छोटा पड़ जाता है. बताते हैं करीब 50 साल पहले यहां कोई ‘रावण वाले बाबा’ ने पुतले बनाना शुरू किया था, तब से ये वहां की परंपरा सी बन गई.

तितारपुर वैसे तो शादी-ब्याह का बैंड मार्केट भी है, लेकिन इन दिनों यहां सिर्फ ‘रावण राज’ चलता है. दशहरा से कुछ दिन पहले अगर आप तितारपुर जाएं, तो लगेगा कि रावण, कुंभकर्ण और मेघनाद ने पूरा इलाका कब्जा लिया है.

टेगौर गार्डन मेट्रो से लेकर राजौरी गार्डन तक- एक किलोमीटर के एरिया में बस पुतले ही पुतले! सड़क किनारे, पार्कों में, यहां तक कि लगता है कि खंभों को भी रावण की कंपनी ने स्पॉन्सर कर रखा हो.

हर गली-मोहल्ले का सीन ऐसा कि दोनों तरफ से रावण झांक रहा है. अगर अचानक असली रावण प्रकट हो जाए, तो खुद बोले-‘भाई, मेरे तो बस 10 सिर थे, यहां हजारों में कहां से आ गए?’

जैकेट फैक्ट्री से रावण-निर्माण तक रावण मंडी में हमारी पहली मुलाकात 63 साल के लेखराज से हुई. चेहरे पर झुर्रियां, हाथों में अब भी हुनर, और आंखों में ऐसा सुकून मानो वो रावण नहीं, पूरा जीवन गढ़ रहे हों. जैसलमेर के रहने वाले लेखराज बीते 40 साल से दिल्ली में जमे हुए हैं. कभी लेदर जैकेट फैक्ट्री में काम करते थे, बढ़िया भी चलता था, पर उम्र ने धीरे-धीरे वह हुनर छीन लिया. आठ साल पहले जब काम छूटा, तो एक दिन इधर-उधर भटकते हुए तितारपुर पहुंचे. देखा, लोग रावण बना रहे हैं. बस, वही दिन था और नया धर्म मिल गया- ‘रावण-निर्माण!’

लेखराज बताते हैं, ‘जुलाई से ही काम चालू हो जाता है. कोई ढांचा बनाता है, कोई रंग-रोगन करता है, कोई डिजाइन देता है. मानो IPL की फ्रेंचाइज़ी हो-हर कोई अपनी पोजिशन पर फिट.’

अब रावण कैसे जन्म लेता है, ये सुनिए. सबसे पहले UP और MP से बांस आता है. लेकिन कोई भी बांस नहीं- ऐसा चाहिए जिसमें लचक ज्यादा हो, ताकि आसानी से मुड़ सके. फिर उसकी छिलाई-कटाई होती है, और बांस से सिर, छाती, घाघरा सबको अलग-अलग शेप दी जाती है. इस अस्थि-पंजर को कारीगर अपनी भाषा में ‘जंगला’ कहते हैं.

इसके बाद असली कमाल- इस ‘जंगले’ को साड़ी पहनाई जाती है. फिर उस पर खाकी पेपर चिपकता है, ऊपर रंग-बिरंगे पेपर लगते हैं, और आखिर में डिजाइनिंग का मेकअप. लो जी, तैयार हो गया लंकापति- दहन के लिए रेड कार्पेट पर चलने को.

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ ग्राहक स्पेशल इफेक्ट्स भी मांगते हैं- ‘भइया, थोड़ा बम-शम भी लगाओ. धड़ाम से गिरे तो मजा आए.’

हालांकि ज्यादातर ग्राहक अपनी क्रिएटिविटी खुद ही दिखाते हैं. ये कारीगर तो बस रावण का बेसिक मॉडल तैयार करते हैं. अब उसमें बम-फुलझड़ी डालनी है, रॉकेट फिट करना है या एंट्री के वक्त ‘धमाकेदार DJ रावण’ बनाना है- वो सब खरीदार की मर्जी.

चलो भइया, रावण तैयार तो हो गया. लेकिन अब सवाल बड़ा है- ये बिकेगा कहां?

इसका जवाब हमें 40 साल के विक्की तंवर ने दिया. आम दिनों में हाउसकीपिंग का काम करने वाले विक्की दशहरा से दो महीने पहले ‘लंका प्रोडक्शन हाउस’ के प्रोजेक्ट मैनेजर बन जाते हैं.

ठिकाना- तितारपुर का DDA पार्क. विक्की बड़े फख्र से बताते हैं, ‘ये रावण दिल्ली ही नहीं, NCR, यूपी, पंजाब, बिहार तक जाते हैं. इस बार दो रावण तो अमेरिका और कनाडा भी गए.’

बात करते-करते विक्की अचानक कारीगरों पर गरजे, ‘जल्दी हाथ चला ओय! गाड़ी आ गई है… 20 रावण पंजाब जाने हैं!’… सीन ऐसा था मानो कोई कार्गो फ्लाइट रवाना हो रही हो, फर्क इतना कि कंटेनर में कार नहीं, 20 फुट लंबे रावण के पुतले लोड हो रहे थे.

वहीं बगल में उनकी 70-75 साल की मां, सरोज बैठी थीं. हाथों में गोंद और रंग-बिरंगे कागज लिए. सरोज बोलीं, ‘अब इस उम्र में मुझसे नया रावण तो बनेगा नहीं, लेकिन बेटों का हाथ बंटा देती हूं.’ वैसे, 30 साल से वो यही काम कर रही हैं- रावण को सजाने का.

हमने पूछा-‘अम्मा, दिक्कत क्या है इस काम में?’

अम्मा कुछ बोलतीं, इससे पहले पीछे से आवाज़ आई- ‘उंगलियां कट जाती हैं भइया. आसान नहीं है ये काम.’

ये थे राजा, 19 साल के.

हमने छेड़ा- ‘तो पढ़ाई क्यों नहीं की?’ राजा का जवाब तैयार था, ‘घरवाले तो पढ़ाना चाहते थे, लेकिन मेरा मन नहीं लगा. चौथी में ही पढ़ाई छोड़ दी. अब रैपिडो चलाता हूं, और सीजन में यहां आकर रावण बनाता हूं.’

राजा की क्रिएटिविटी भी कमाल की है- ‘देखिए भइया, बांस से तो सब बनाते हैं, लेकिन मैं पेप्सी की बोतल से रावण की गर्दन और चाय के कप से उसका मुंह बना देता हूं. हैं ना बढ़िया!’

मतलब, जहां दिल्ली वाले पेप्सी पीकर बोतल कूड़े में फेंक देते हैं, राजा उसे पकड़कर रावण का सिर बना देता है. किसी और के लिए ये प्लास्टिक का कचरा है, लेकिन राजा और उसके जैसे बाकी लड़कों के लिए

60-70 फुट लंबे ‘गगनचुंबी लंकेश’ DDA पार्क से निकलकर हम पहुंचे टेगौर गार्डन मेन रोड पर- जहां चल रहा था असली होलसेल तमाशा. छोटे-मोटे 10-15 फुट वाले नहीं, बल्कि 60-70 फुट लंबे ‘गगनचुंबी लंकेश’ तैयार हो रहे थे. पूरा नजारा ऐसा कि लगे रावण नहीं, कोई नई मेट्रो पिलर लाइन खड़ी हो रही हो.

एक पुतले पर गोंद लगाते हुए 34 साल के रोहित मिले. कपड़े गोंद से ऐसे चिपके थे जैसे किसी ने उन्हें पुतले के साथ कॉम्बो पैक में बेच दिया हो. रोहित ने बताया कि 70 फीट के रावण में 10 फीट का सिर और 30-30 फीट का धड़ और घाघरा होता है.

फिर रोहित ने बड़े नपे-तुले अंदाज़ में रेट कार्ड थमाया-‘500 रुपये फुट का हिसाब है. मान लीजिए 60 फुट का पुतला है, तो 30 हजार रुपये. बनाने में हमारी लागत करीब 12-15 हजार आती है, बाकी पैसा हमारी कारीगरी का है.’

सोचिए- 60 फुट का रावण यानी 30,000 रुपये. इतने में तो कोई पुराना iPhone मिल जाएगा, लेकिन वहां आपको सिर्फ एक ‘Face ID’ मिलेगी, यहां आपको 10 Face ID मिलती हैं!

कई जगहों से खबरें आई थीं कि पति को मारने की आरोपी सोनम, मुस्कान जैसी लोगों के पुतले भी जलाए जाने वाले हैं. हमने रोहित से पूछा- ऐसे कोई खास ऑर्डर आए हैं क्या?

रोहित ने हंसते हुए कहा, ‘भइया, हमारे यहां रावण तो बस रावण ही बनता है. ये चेहरा ही हमारा रोजगार है. इसी से हमारा घर चलता है.’