भारतभर में ही नहीं विदेशों में भी दिवाली धूमधाम से मनाई गई, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हिमालयी प्रदेशों उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में दिवाली महीनेभर बाद मनाई जाएगी।
स्थानीय इसे बूढ़ी दिवाली बुलाते हैं। इस दिवाली को मनाने के भी अनोखे रिवाज और परंपराएं हैं। इसमें रस्साकशी, मशाल जुलूस और अन्य पारंपरिक रिवाज शामिल हैं।
उत्तराखंड में तो दीपावली मुख्य रूप से अक्टूबर के तीसरे सप्ताह यानी 20 या 21 अक्टूबर को मनाई जा रही है, लेकिन पर्व के कुछ रीति-रिवाज और लोक-कथाएं हिमालयी क्षेत्रों में इस बूढ़ी दिवाली के पर्व को अलग महत्व देती हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों में 11 दिन बाद भी दिवाली मनाई जाएगी। स्थानीय लोग इसे बग्वाल कहते हैं। उत्तराखंड के जौनसार बावर और हिमाचल के कुल्लू में दिवाली नवंबर के दूसरे या तीसरे सप्ताह में मनाई जाती है।
नामकरण की अनोखी कहानी
बूढ़ी दिवाली नामकरण के पीछे लोगों का विश्वास यह है कि यह दिवाली पारंपरिक दिवाली के लगभग एक महीने बाद आती है, जो खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में मनाई जाती है। इसे राम-रावण के युद्ध और भगवान राम के अयोध्या आगमन से जोड़ा जाता है। ऐसी मान्यता है कि हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को राम की जीत की खबर महीनेभर बाद मिली। इसलिए स्थानीय लोगों ने तब खुशी में दिवाली मनाई। लोग मानते हैं कि यह दिवाली जीवन के पुराने कष्ट और बुराइयों से मुक्ति का संदेश देती है।
पटाखे नहीं फोड़ते
जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली कई दिनों तक मनाई जाती है। इस दिवाली का खास रीति है कि इसमें पटाखे नहीं जलाए जाते, बल्कि भीमल की लकड़ी की मशालें जलाई जाती हैं। इस दौरान ग्रामीण पारंपरिक वेशभूषा पहनकर गांव के पंचायती आंगन या खलिहान में इकट्ठा होते हैं। वहां ढोल-दमाऊ की थाप पर रासो, तांदी, झैंता, हारुल जैसे पारंपरिक नृत्य किए जाते हैं।
इस पर्व की खास बात यह है कि यह पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल होता है और यहां के लोग इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। बूढ़ी दिवाली की मान्यता जौनसार बावर के बुजुर्गों के अनुसार भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर इस जनजातीय क्षेत्र में देर से पहुंचने के कारण महीनेभर बाद मनाई जाती है। इसके अलावा, जौनसार बावर कृषि प्रधान क्षेत्र है, इसलिए फसल कटाई के बाद ही लोग इस त्योहार को मनाने की परंपरा रखते हैं।