देश इस समय पानी के विकराल संकट से जूझ रहा है। झीलें और जलाशय सूख रहे हैं, लाखों लोग पानी की कमी से त्रस्त होकर पलायन कर रहे हैं। नदियां सूख रही हैं और कृषि बर्बाद हो रही है- इन सबके बीच प्रधानमंत्री ने 25 जून को संसद में बताया कि वे और एनडीए पानी के संकट को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
इस वक्तव्य को भी मीडिया ने इस तरह पेश किया मानो कहीं कोई संकट नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा कि वे इस समस्या के प्रति इतने गंभीर हैं कि अलग से एक जलशक्ति मंत्रालय बना दिया। उन्होंने लोहिया जी का एक वक्तव्य भी पढ़ा- ‘महिलाएं सबसे अधिक शौचालय की कमी और पानी की कमी से प्रभावित होती हैं’। प्रधानमंत्री ने राजस्थान और गुजरात का उदाहरण भी इस संदर्भ में दिया, लेकिन सबसे अधिक प्रभावित राज्यों- तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र का नाम भी नहीं लिया। उन्होंने कहा कि पानी की कमी दूर कर सामान्य लोगों की जान बचाई जा सकती है और इसका फायदा सबसे अधिक गरीबों को मिलेगा।
जाहिर है, प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जनता और मीडिया की पसंद के हरेक विषय- शौचालय, महिला, गरीब सबको शामिल कर लिया। सदन में मेजें भी थपथपाई गईं, लेकिन इससे देश को क्या मिला? कहा जा रहा है कि इस बार का जल संकट 1972 के संकट से भी भयानक है, जिसमें लगभग 3 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे और पिछले पांच साल से तो एनडीए ने ही राज किया है। ऐसे में मोदी जी किस प्राथमिकता की बात कर रहे हैं और अगर प्राथमिकता के बाद भी ऐसा संकट आया है तब तो अच्छा है कि प्राथमिकता हो ही नहीं।
कुछ दिन पहले राज्यसभा में पानी की समस्या को लेकर छोटी चर्चा की गई। मानसून के बादल देर से ही सही, पर देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचने लगे हैं। जाहिर है कम या ज्यादा बारिश तो होगी ही। इससे पानी की समस्या से कुछ छुटकारा मिलेगा और यह समस्या मीडिया से और संसद से गायब हो जाएगी। फिर अगली गर्मियों में यही सिलसिला चलेगा।
नीति आयोग ने देश में पानी की समस्या पर एक बेहतरीन रिपोर्ट दो साल पहले तैयार की थी, लेकिन संसद में कभी इस पर चर्चा नहीं की गई। एक कहावत है, आग लगने पर कुआं खोदना, जो प्रधानमंत्री, इन नेताओं और मीडिया पर पूरी तरह सही बैठती है। जब लोग पानी की कमी से मरने लगते हैं और जब फसलें झुलस जातीं हैं तभी यह समस्या नजर आती है।
इस समय आधे से ज्यादा भारत सूखे का सामना कर रहा है और इस बीच मौसम विभाग ने कहा है कि 22 जून तक देश में औसत की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत कम बारिश हुई है। आगे के भी आसार बहुत अच्छे नहीं हैं। इस समय लगभग एक करोड़ किसान पानी की किल्लत से जूझ रहे है। प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के अनुसार 20 जून को समाप्त हुए सप्ताह के दौरान देश के 91 बड़े जलाशयों में कुल क्षमता की तुलना में महज 17 प्रतिशत पानी ही बचा है। पश्चिमी और दक्षिणी भारत के जलाशयों में तो महज 10 प्रतिशत पानी ही बचा है।
‘वाटर ऐड’ नामक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 4 अरब आबादी पानी की कमी से जूझ रही है, इसमें एक बड़ी आबादी भारत में है। साल 2050 तक पानी की कमी से 5 अरब आबादी का सामना होगा। साल 2040 तक दुनिया के 33 देश पानी की भयानक कमी का सामना करेंगे। इन देशों में भारत, चीन, साउथ अफ्रीका, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। दुनिया में भूजल में 22 प्रतिशत की कमी आई है, जबकि हमारे देश में यह कमी 23 प्रतिशत है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसके अनुसार 2030 तक पूरी आबादी को साफ पानी उपलब्ध कराना है।
भारत के नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के 54 प्रतिशत हिस्सों में भूजल कम हो रहा है, नदियों का 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा प्रदूषित है, तालाब और झीलें दम तोड़ रही हैं। वाटर क्वालिटी इंडेक्स में कुल 122 देशों की सूची में हमारा देश 120वें स्थान पर है। पानी की कमी से हम वर्तमान में ही जूझ रहे हैं और साल 2030 तक पानी की मांग दोगुनी हो जाएगी। हरेक साल देश में 2 लाख व्यक्तियों की मौत गंदे पानी या फिर बिना पानी के चलते होती है। यही नहीं, पानी की कमी से देश के सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत की कमी हो जाती है।
इन सबके बाद भी पानी को लेकर सरकार कहीं से गंभीर नहीं दिखती। जल संकट से सबसे अधिक गांव के लोग जूझते हैं और इसके बाद शहर की आबादी। खेती पर भी इसका असर पड़ता है, लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि कोई उद्योग पानी की कमी से बंद हो गया। ऐसा होता ही नहीं है, क्योंकि पानी की बर्बादी और पानी के प्रदूषण के मुद्दे पर उद्योगों से कोई नहीं पूछता। नदी का जल हो या फिर जमीन के अंदर का जल, उद्योगों के लिए यह हमेशा उपलब्ध रहता है।
पानी हमारी सरकारों के लिए कभी कोई मुद्दा नहीं रहा और न तो निकट भविष्य में इसके मुद्दा बनने की कोई उम्मीद है। समस्या जब गंभीर होती है, तभी जनता कराहती है, मीडिया दिखाती है और नेता भाषण देते हैं और प्राथमिकता बताते हैं।