उत्तर प्रदेश के घोसी और उत्तराखंड के बागेश्वर सहित 6 राज्यों की 7 विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के लिए वोटिंग हो चुकी है. अब नतीजों का इंतजार है. ऐसे में सभी की निगाहें घोसी उपचुनाव पर लगी हैं, क्योंकि एनडीए बनाम INDIA गठबंधन की लड़ाई है.
एनडीए से बीजेपी के दारा सिंह चौहान और विपक्षी गठबंधन INDIA से सपा के सुधाकर सिंह की बीच सीधा मुकाबला है. घोसी उपचुनाव के वोटिंग पैटर्न को देखें तो 2022 के चुनाव की तुलना में सवा 8 फीसदी कम वोटिंग हुई है. ऐसे में कम वोटिंग बीजेपी के दारा सिंह के लिए चिंता बढ़ाएगी या फिर सपा के सुधाकर के लिए संजीवनी?
घोसी विधानसभा उपचुनाव में मतदाताओं का उत्साह नहीं दिखा और 50.30 फीसदी ही वोटिंग हो सकी. चुनाव आयोग के लिहाज से 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में घोसी सीट पर 58.53 फीसदी मतदान हुआ था. इस लिहाज से देखें तो इस बार 8.23 फीसदी वोटिंग कम हुई है. कम मतदान किसके लिए टेंशन का सबब बनेगा ये तो शुक्रवार को मतगणना के दिन ही पता चल सकेगा. हालांकि, सपा और बीजेपी दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवार अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं, लेकिन साथ ही कम वोटिंग के नफा और नुकसान का भी आकलन करने में जुटे हैं. ऐसे में दारा सिंह से लेकर सुधाकर सिंह की धड़कने बढ़ी हुई हैं.
घोसी का वोटिंग पैटर्न क्या कहता है?
घोसी विधानसभा उपचुनाव में 8.23 फीसदी कम वोटिंग हुई है, जिसे लेकर सपा और बीजेपी दोनों की चिंताए बढ़ी हुई हैं. वोटिंग पैटर्न और ट्रेंड को देखें तो राजनीतिक पंडित यह मानते हैं कि भारी मतदान और उनके बदलाव के संकेत होते हैं जबकि कम वोटिंग को सरकार और विधायक के प्रति मतदाताओं की नाराजगी के तौर पर देखा जाता है. हालांकि, घोसी सीट के वोटिंग ट्रेंड को देखें तो उपचुनाव में हमेशा से 8 से 9 फीसदी कम ही वोटिंग रही है.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट पर फागू चौहान विधायक बने थे, उस समय घोसी सीट पर 58.89 फीसदी वोटिंग हुई थी. फागू
चौहान ने राज्यपाल बनने के बाद विधायकी पद से इस्तीफा दे दिया था, उसके बाद 2019 में हुए उपचुनाव में 51.93 फीसदी फीसदी वोटिंग हुई थी. इस तरह से उपचुनाव में 7 फीसदी कम मतदान रहा था. इस बार भी उपचुनाव में यही ट्रेंड दिखा है और करीब सवा 8 फीसदी वोटिंग कम हुई है.
भूमिहारों में दिखा कम उत्साह, मुस्लिमों की लंबी कतार
भूमिहार बहुल खुंखदवा और काछीकला में वोटिंग कम हुई है जबकि मुस्लिम बहुल जमालपुर और मिर्जापुर में मतदान काफी रही. इसी तरह मुस्लिम बहुल कोपागंज में कम वोटिंग रही तो राजभर और ओबीसी बहुल गांव धवरियासाथ में भी मतदाताओं में उत्साह नहीं दिखा. अगर ऐसे ही वोटिंग पैटर्न रहा तो बीजेपी के दारा सिंह चौहान की राह काफी मुश्किलों भरी हो सकती है.
2019 के उपचुनाव में बीजेपी के विजय राजभर जीतने में कामयाब रहे थे, लेकिन इस बार के उपचुनाव में बीजेपी ने दारा सिंह चौहान को उतारा था, जो सपा से 2022 में विधायक बने थे और बाद में उन्होंने पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. बीजेपी ने दारा सिंह के जरिए नोनिया कार्ड चला है, जो 2022 के चुनाव में सपा के साथ चला गया था. इसके अलावा राजभर वोटों को जोड़ने के लिए सुभासपा के अध्यक्ष ओपी राजभर को भी लगाया गया था. इस लिहाज से दारा सिंह चौहान अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे और साथ ही बीजेपी के सत्ता में होने का भी उन्हें लाभ मिलने की उम्मीद है.
उपचुनाव में सत्ताधारी पार्टी को लाभ
उपचुनाव में अक्सर देखा गया है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी के उम्मीदवार को जीत मिलती है, इस लिहाज से दारा सिंह चौहान को जीत मिलने की उम्मीद दिख रही है, लेकिन घोसी के सियासी समीकरण और उनके बाहरी होने का खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ सकता है. सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह क्षेत्रीय हैं और 2012 में इस सीट से विधायक रह चुके हैं. इतना ही नहीं निर्दलीय लड़कर भी 60 हजार के करीब वोट हासिल करने में वो कामयाब रहते हैं. इतना ही नहीं सपा ने सवर्ण कैंडिडेट उतारकर ठाकुर, ब्राह्मण, भूमिहार वोटों को भी साधे रखने की कवायद की है.
घोसी सीट पर जिस तरह से एक लाख से ज्यादा मुस्लिम मतदाता, 65 हजार यादव और 38 हजार राजपूत वोटर हैं, उसके चलते सुधाकर सिंह के लिए जीत की उम्मीद दिखती है और सपा भी इसी समीकरण के लिहाज पर जीत की आस लगाए हुए है, लेकिन वोटिंग के दौरान जिस तरह से सपा ने आरोप लगाया है कि मुस्लिम और यादव समुदाय बहुल वाले बूथों पर वोटिंग डालने नहीं दिया गया है. ऐसे में करीब 8 फीसदी वोटिंग का कम होना, सपा के लिए चिंता बढ़ा सकती है.
बसपा के चुनाव न लड़ने का फायदा किसे?
घोसी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बसपा ने अपना कैंडिडेट नहीं उतारा जबकि इससे पहले तक हर चुनाव लड़ती रही है. 2017, 2022 के विधानसभा 2019 के उपचुनाव और उससे पहले भी बसपा अपना उम्मीदवार उतारती रही है. बसपा को औसतन करीब 55 हजार वोट मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती घोसी सीट पर ज्यादातर मुस्लिम समुदाय से ही कैंडिडेट लड़ाती रही है. ऐसे में बसपा के चुनावी मैदान में न होने से एक तरफ सपा को मुस्लिम वोटों के फायदा मिलने की उम्मीद दिख रही है तो दलित वोटों में बिखराव दिखा है. इस तरह से बसपा का वोट बैंक घोसी में किंगमेकर की भूमिका में है, जिसे साधने के लिए सपा और बीजेपी दोनों ने ही पूरी ताकत झोंकी थी. ऐसे में दलित वोटों के झुकाव घोसी सीट पर जीत की उम्मीद बना है.