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दिल्ली के ‘तीन मूर्ति’ का इजरायल कनेक्शन, हाइफा के बच्चे भी जानेंगे, क्या आपने सोचा किसकी हैं वो तीनों मूर्तियां

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इजरायल में लोग कह रहे हैं कि वो अपनी किताबों में जो इतिहास पढ़ाया जाता है वो दुरुस्त करेंगे? ये मत सोचना कि उनका इतिहास है, वो जानें कि वो अपने बच्चों का क्या पढ़ाएंगे, हम तो यहां अपने इतिहास से ही जूझ रहे हैं. जो इजरायल में करने जा रहे हैं, उसका हमसे सीधा नाता है और वो जो अपने बच्चों को पढ़ाने जा रहे हैं वो हमें भी अपने बच्चों को पढ़ाने की जरूरत है. उससे पहले ये तो जान लें कि वो है क्या? अभी जब ब्रिटेन ने भी फिलीस्तीन को मान्यता दे दी कुछ दिन पहले तो कई लोगों ने इतिहास भी खंगाला कि ब्रिटेन का रोल क्या था इजरायल बनाने में और इतने दिनों तक वो फिलीस्तीन को क्यों नहीं मान्यता दे रहा था.
ऐसे में कहानी गई पिछली सदी में क्योंकि कहानी ये है जहां अब इजरायल है वहां तुर्की का राज हुआ करता था. वो ऑटोमन तुर्क साम्राज्य का हिस्सा था. तुर्कों का बहुत बड़ा साम्राज्य था- ऑटोमन तुर्क साम्राज्य. तुर्की से पूरे अरब से लेकर उत्तरी अफ़्रीका तक फैले राज्य में ये इलाका भी था, जहां आज इजरायल है. फिलीस्तीन कहते थे इलाके को, हालांकि कोई ऐसा नक्शा काट कर बॉर्डर बना कर कोई देश नहीं था लेकिन ये इलाका भी तुर्क साम्राज्य में था.यहां बंजर रेगिस्तान था ज्यादातर तो तुर्क जागीरदार, यहां अपनी मिल्कियत चलाते थे. पहली वर्ल्ड वॉर हुई, उसमें ऑटोमन तुर्क जर्मनी के साथ थे और ब्रिटेन था दूसरी तरफ. उस जंग में ब्रिटेन ने तुर्कों को हरा दिया था और इस फिलीस्तीन वाले इलाके पर जब कब्जा कर लिया था. उसके बाद ही तो ब्रिटेन ने वहां दुनिया भर के यहूदियों को जमीनें देने की योजना शुरू की थी कि यहूदी यहां आ कर बस जाएं. 1918 में जंग जीतने के बाद ब्रिटेन ने ये किया था और ये आगे चल कर यहूदियों का देश ही बन गया. आज तक फिलीस्तीनी वही तो लड़ाई लड़ रहे हैं कि यहां पर बसाए गए और फिर वहां अपना देश ही बना लिया.
हाइफा की जंग ब्रिटेन नहीं, भारत ने जीती थी
अब आप कहोगे कि वो तो ठीक है लेकिन इसका हमसे क्या मतलब? तो सुनिये इजरायल क्या करने जा रहा है अपनी किताबों में. जहां उसकी किताबों में ये पढ़ाया जाता थी कि ब्रिटेन की फौज ने ये जमीन आजाद करवा कर दी जिस पर आ कर यहूदी बसे और इजरायल बना, वहां पर अब किताबों में ये पढ़ाया जाएगा कि भारतीय फौजियों ने ये जमीन आजाद करवा कर दी, जहां पर यहूदी बस सके और इजरायल बन सका. वो क्यों? क्योंकि पहली वर्ल्ड वॉर में जो अंग्रेजों की सेना लड़ी थी उसमें कौन लड़े थे? भारतीय सैनिक ही तो थे. ये उसी जंग की कहानी है जिसको हमारे यहां भी लोग भूल चुके हैं- हाइफा की जंग. इसे भारतीय सैनिकों ने लड़ा था.

दिल्ली में तीन मूर्ति चौक से लोग गुजर जाते हैं. तीन मूर्ति भवन के बारे में शायद लोग जानते भी हैं कि वहां नेहरू रहते थे जब प्रधानमंत्री थे और अब वो म्यूजियम है. पर वो तीन मूर्ती क्या है और वो तीन मूर्तियां किनकी हैं ज्यादातर लोग नहीं जानते. वो तीन मूर्तियां उन्हीं फौजियों की याद में हैं, जिन्होंने वो जमीन तुर्कों से आजाद करवाई थी, जहां आज इजरायल है. वो मूर्तियां तीन ही क्यों हैं उस की भी बात करेंगे लेकिन अब तो इजरायल भी अपने बच्चों को पढ़ा रहा है कि भारतीय फौजियों का क्या रोल था उसके बनने में, तो आप भी तो जान लीजिये. ये उस भूली हुई जंग की कहानी है जो जानना सबके लिए ज़रूरी है.
जब मशीनों और तोपों से लड़ गए तलवार और भाले

ये कहानी 1918 की है, जब दुनिया आग और धुएं में जल रही थी. पहला विश्व युद्ध हो रहा था, हर तरफ ख़ून, मिट्टी और बारूद. दूर उन रेगिस्तानी पहाड़ों में, भारत की धरती से गए कुछ घुड़सवार सैनिक इतिहास रचने वाले थे. ये हिंदुस्तान के साधारण परिवारों के लोग थे, रेगिस्तान और मैदानों के बेटे, जो आजादी की उम्मीद में, ब्रिटिश झंडे तले लड़ रहे थे. उनकी कहानी सिर्फ एक जंग की नहीं, बल्कि एक नए देश इजराइल के जन्म की कहानी है. इस कहानी ने दिल्ली की सड़कों से लेकर हाइफा की किताबों तक छाप छोड़ी. 1918 में हिंदुस्तान आजाद नहीं था. ब्रिटिश राज था, जैसे कोई बड़ा शतरंज का खेल, जहां अंग्रेज हिंदुस्तानियों को अपनी मोहरों की तरह इस्तेमाल करते थे. पहली वर्ल्ड वॉर हुई तो अंग्रेजों ने 10 लाख से ज्यादा हिंदुस्तानी सेना में भर्ती कर लिये. कुछ पैसे के लिए भर्ती हुए, कुछ रोमांच के लिए, कुछ बस ज़िंदा रहने के लिए. 74,000 से ज्यादा शहीद हो गए ब्रिटेन के लिए लड़ते हुए, लेकिन उनके नाम रेत में लिखे निशान की तरह मिट गए. वैसे दिल्ली में इंडिया गेट पर उनमें कई के नाम जरूर लिखे हैं, लेकिन बहुत से गुमनाम रह गए. उधर पश्चिम एशिया में दुश्मन था ऑटोमन साम्राज्य, तुर्की से अरब तक फैला विशाल साम्राज्य, जो जर्मनी का दोस्त था. उसके कब्जे में था हाइफा, जो आज इजराइल का हिस्सा है, लेकिन तब तुर्की का एक धूल भरा बंदरगाह था. वहां तैनात थीं जर्मन मशीनगनें और तोपें क्योंकि पहली वर्ल्ड वॉर में पहली बार बड़े पैमाने पर मशीनगन का इस्तेमाल हुआ था. मशीनगनों ने कई जंगों की बाजी पलट दी थी वर्ल्ड वॉर में. अंग्रेजों को हाइफा चाहिए था क्योंकि हाइफा बंदरगाह भूमध्य सागर में था और उसी रास्ते से तुर्कों को यूरोप से यानी जर्मनी से सारा असलहा भी मिल रहा था. अंग्रेजों की कैलकुलेशन ये थी कि अगर हाइफा पर कब्जा हो जाए तो समुद्र से उसके रास्ते इस पूरे इलाके में सेना की एंट्री हो सकती थी. यानी ये हाइफा बंदरगाह उनके लिए जिंदगी की डोर था, खाना, हथियार, और जीत की राह. दिक्कत ये थी कि जर्मनी और तुर्कों ने यहां मशीन गनें लगाई हुई थी और ब्रिटिश सेना ने यहां उतारे घुड़सवार सैनिक, भाले लिये हुए. 15वीं इंपीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड, उसमें थे लगभग 400 घुड़सवार, जो भारत के तीन रजवाड़ों से आए थे. जोधपुर, मैसूर, हैदराबाद- ये वो रियासतें थीं, जिनके शासकों ने अपनी सेनाएं अंग्रेजों को दीं थीं. उन्हीं के ये घुड़सवार सैनिक थे और इनके लीडर थे मेजर दलपत सिंह, जोधपुर लैंसर्स के एक शांत, ऊंचे कद के राजपूत योद्धा. उनके पास थे मराठा घोड़े, लंबे भाले, तलवारें, और हिम्मत का जज्बा. न तोप, न मशीन गन, बस घोड़े और दिलेरी.
घोड़ों की टाप से बारूद का नशा हुआ चूर
23 सितंबर 1918 को हुक्म आया- हाइफा पर हमला. सामने थे 1,500 ऑटोमन तुर्क और जर्मन सैनिक. माउंट कार्मेल की चट्टानों में छिपे, 17 तोपों और मशीनगनों के साथ. नीचे दलदल जैसी नदी थी. मशीनगन के सामने घोड़ों पर चढ़कर लड़ना मौत को बुलावा देने जैसा था. जंग के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था लेकिन मेजर दलपत सिंह ने अपने जवानों को इकठ्ठा किया. सबने अपनी पगड़ियां कसीं और घोड़ों को एड़ लगाई और शुरू हुई हाइफा की जंग, इतिहास की आखिरी घुड़सवार से लड़ी गई जंग. सुबह गर्म थी, धुंध भरी. जोधपुर लैंसर्स, नीली पगड़ियों में, शहर के दक्षिण से आगे बढ़े. मशीनगन की गोलियां हवा में गूंजने लगीं. दलपत ने देखा, पहाड़ी पर दुश्मन की मुख्य तोपें थीं, वो फायर कर के हर चीज को चूर-चूर कर रही थीं. मेजर दलपत ने इशारा किया- हमला करो, और दो टुकड़ियां यानि लगभग 200 घुड़सवार, तोपों की तरफ दौड़े. घोड़ों की टापों ने जमीन हिला दी, धूल का गुबार उठा. तुर्की के सैनिक आत्मविश्वास से भरे थे कि मशीनगनों के सामने घोड़े? उनको लगा ये कौन पागल हैं जो सिर्फ भालों से लड़ते हुए मौत के मुंह में आ रहे हैं. लैंसर्स गोलियों के तूफान से निकले, भाले तने हुए. 90 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से वो तोपों पर टूट पड़े. तलवारें चमकीं, भाले चुभे. तुर्क सैनिक चीखते हुए भागे. दलपत खुद आगे थे, तलवार उठाए, पर एक गोली ने उन्हें ढूंढ लिया. वो गिरे, रेत खून से लाल हो गई.

कौन था हाइफा का हीरो?
“हाइफ़ा का हीरो” 42 साल की उम्र में चला गया, मगर उनके जवान नहीं रुके. मिनटों में उन्होंने तोपखाने पर कब्जा कर लिया, 30 बंदी बना लिए, 2 मशीनगनों पर कब्जा कर लिया और ऊंटों पर लदी तोपें हथिया लीं. फिर पूर्व की दिसा से मैसूर लैंसर्स आए और हरी पगड़ियों में दक्षिण भारत के शेर थे. उन्होंने ऑस्ट्रियाई तोपखाने को चुप करा दिया, फिर हैदराबाद लैंसर्स ने पीछे से मोर्चा संभाला, तलवारें तैयार. मिलकर वो हाइफा के दरवाजों पर टूट पड़े. तुर्क निशानची छतों से गोलियां चलाते रहे, औरतें-बच्चे डर से दुबके थे. हालांकि लैंसर्स बाढ़ की तरह घुसे, तोपचियों को भाला मारा, दीवारें लांघीं और सूरज ढलते-ढलते जंग खत्म और हाइफा शहर उनके कब्जे में आ गया. 1,350 बंदी बना लिए, उनमें 35 ऑटोमन तुर्क अफसर थे, 2 जर्मन थे, 17 तोपें, 11 मशीनगनें हथिया लीं. मेजर दलपत सिंह का पार्थिव शरीर हीरो की तरह घर लाया गया.
ये युद्ध नहीं चमत्कार था …
इतिहासकार कहते हैं ये चमत्कार था. आधुनिक युद्ध में पहली बार घुड़सवारों ने एक किलेबंद शहर जीता, वो भी मशीनगन से लड़ते हुए. मिलिटरी इतिहास में दर्ज है हाइफा की जंग कि कैसे घोड़े पर भाले लिए हुए सैनिकों ने मशीनगन वाले सैनिकों को हराकर एक बंदरगाह पर कब्जा कर लिया. ब्रिटिश जनरल एडमंड एलनबी ने लंदन संदेश भेजा कि इस पूरी जंग में इससे ज़्यादा हैरतअंगेज हमला नहीं हुआ. हाइफ़ा पर कब्जा जंग का वो पड़ाव था जिसने पूरी जंग को ही मोड़ दिया. तुर्क टूट गए, उनका साम्राज्य बिखर गया और 2 महीने बाद उनको घुटने टेकने पड़े. इस हमले ने फिलिस्तीन में ब्रिटिश जहाजों को रास्ता दिया और उसी वजह के इलाके पर ब्रिटेन का कब्जा हो सका था और ये सिर्फ ब्रिटिश सेना की जीत नहीं थी. यहीं से इज़राइल बनने की कहानी शुरू हुई.

यहां से पड़ी इजरायल की नींव
ऑटोमन राज में फिलिस्तीन टुकड़ों में बंटा था, कोई यहूदी देश नहीं था, बस तुर्क हाकिमों की जमीनों के टुकड़े थे. अंग्रेजों ने घोषणा कर दी कि वहां यहूदियों को बसने के लिए ज़मीनें देंगे. उनको युद्ध के लिए यहूदी समर्थन चाहिए था और तेल से भरे इलाके पर कब्जा चाहिए था. हाइफा की जीत इस सब की चाभी थी. बंदरगाह खुला तो ब्रिटिश सैनिक लहरों की तरह आए और ऑटोमन तुर्कों को हटाया. यहूदी नेताओ ने मौका देखा और यूरोप से यहूदी शरणार्थी आए, उन्होंने जमीनें खरीदीं और बस्तियां बनाईं. हाइफा जैसे बंदरगाहों से उनके जहाज उतरे लेकिन इतिहास में ये सब ब्रिटिश सेना की जीत दर्ज हुई. हिंदुस्तानी सिपाहियों को किसी ने याद नहीं किया और उन सिपाहियों को भी तब नहीं पता था कि ब्रिटिश सेना के लिए लड़ते हुए, उन्होंने अनजाने में एक यहूदी वतन की राह खोली. अगर उन जांबाज घुड़सवारों ने अगर तोपों को और मशीनगन को ना हराया होता तो शायद तुर्क इतनी जल्दी न हारते, ब्रिटिश सेना का कब्जा और टलता. खैर, जोधपुर, मैसूर और हैदराबाद के शासकों ने 1922 में दिल्ली में एक स्मारक बनवाया. तीन कांस्य मूर्तियां – लैंसर्स की. लैंसर यानी भाले से वार करने वाला.
अब सच्चा इतिहास पढ़ेंगे इजरायल के बच्चे
अब 2025 में, इज़रायल में हाइफ़ा में स्कूलों की किताबें बदल रही हैं. बच्चे पहले पढ़ते थे ब्रिटिश सेना ने उन्हें आज़ाद किया. अब पढ़ेंगे वो जाबांज़ हिंदुस्तानी थे. मेजर दलपत सिंह की अगुवाई में लैंसर्स ने भाले और तलवारों से लोहा लिया था मशीन गन से. ऐसी जंग जो मिलिट्री हिस्ट्री में कभी नहीं हुई कि घोड़े पर बैठे सैनिकों ने भालों से मशीन गन को हरा दिया हो. अब तो इजरायल में भी किताबों में पढ़ा रहे हैं तो आप तो जान लो और आने वाली पीढियों को भी बताना. बैटल ऑफ हाइफा. जोधुपर, मैसूर और हैदराबाद के लैंसर और तीन मूर्ति के बारे में भी.

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