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आज मिलेंगे ट्रंप और पुतिन….अलास्का को कभी न्यूक्लियर बम से उड़ा देना चाहता था अमेरिका, 1958 का वो घातक प्लान

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डोनाल्ड ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन 15 अगस्त को अलास्का के एंकरेज में मिलने वाले हैं. इसे दोनों के बीच आगे की बातचीत का पहला स्टेप माना जा रहा है. ट्रंप कह चुके हैं कि उनकी पहली प्राथमिकता ‘तुरंत शांति समझौता’ करवाना है. अगर यह मीटिंग सही दिशा में बढ़ी, तो वे सीधे यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की को भी बातचीत में शामिल करने के लिए कॉल करेंगे. लेकिन इसी अलास्का का एक ऐसा किस्सा है, जिसे सुनकर हैरानी होती है. 1958 में अमेरिका ने एक ऐसा प्लान बनाया था, जिसमें इस जमीन के एक हिस्से को छह न्यूक्लियर बम से उड़ाकर आर्टिफिशियल हार्बर बनाने की सोच थी.

1958 में अमेरिकी एटॉमिक एनर्जी कमीशन (AEC) ने दावा किया कि अलास्का के नॉर्थ-वेस्ट कोस्ट पर एक हार्बर बनाने में बस कुछ सेकंड लगेंगे. तरीका? केप थॉम्पसन और चुकोची सी के बीच जमीन में छह न्यूक्लियर बम गाड़कर एक साथ ब्लास्ट करना. इनका विस्फोट नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए बमों से करीब आठ गुना ज्यादा ताकतवर होता. उनका मानना था कि अगर ब्लास्ट सही मौसम में, बर्फ की परत के बीच किया जाए तो रेडिएशन का असर बहुत कम होगा और लोकल हंटिंग सीजन पर सिर्फ कुछ हफ्तों का असर पड़ेगा.

इस प्रोजेक्ट का नाम था ‘प्रोजेक्ट चेयरियट’. यह सिर्फ अलास्का तक सीमित नहीं था. AEC की बड़ी सोच ‘प्रोजेक्ट प्लोशेयर’ का यह पहला प्रयोग होना था, जिसमें न्यूक्लियर पावर का इस्तेमाल मॉडर्न इंजीनियरिंग और डेवलपमेंट के लिए किया जाना था. सबसे बड़ा सपना था एक नया ‘सी-लेवल कैनाल’ बनाना, जो पनामा कैनाल के मुकाबले ज्यादा तेज और सिक्योर हो. उस समय पनामा कैनाल में जहाजों को ऊपर-नीचे करने के लिए लॉक सिस्टम था, जिससे यात्रा में 12 घंटे तक लग जाते थे. किसी एक लॉक के खराब होते ही यह पूरी तरह बेकार हो सकता था.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैज्ञानिकों ने सोचना शुरू किया कि न्यूक्लियर बम सिर्फ जंग जीतने के लिए नहीं, बल्कि धरती का नक्शा बदलने के लिए भी इस्तेमाल हो सकते हैं. ‘प्रोजेक्ट प्लोशेयर’ के आइडिया में नदियों का रुख मोड़ना, छोटे भूकंप पैदा करके बड़े भूकंप रोकना, रेगिस्तानों में पानी भरना और बड़े लेवल पर कैनाल बनाना जैसे प्लान शामिल थे. हाइड्रोजन बम के जनक एडवर्ड टेलर ने तो यहां तक कह दिया था, ‘अगर आपका पहाड़ सही जगह नहीं है, तो हमें बस एक कार्ड भेज दो.’

प्रोजेक्ट चेयरियट के लिए चुना गया इलाका अलास्का के इन्‍यूपियात जनजाति का घर था. AEC का मानना था कि यहां कम आबादी होने से रिस्क कम होगा. लेकिन लोकल लोगों ने इसका जोरदार विरोध किया. उन्हें पता था कि 1954 में बिकिनी एटोल में हुए न्यूक्लियर टेस्ट के बाद रेडिएशन ने वहां के लोगों और नेचर को कितना नुकसान पहुंचाया था. उनका डर था कि रेडिएशन से उनके शिकार, मछलियां और पीने का पानी हमेशा के लिए दूषित हो जाएंगे.

लोकल विरोध के चलते प्रोजेक्ट दो साल टल गया. इस दौरान एनवायरनमेंटल स्टडी हुई, जिसमें साफ हुआ कि अगर हवा का रुख बदल गया तो रेडिएशन सीधे हंटिंग और नेस्टिंग एरिया में फैलेगा. पानी भी जहरीला हो जाएगा. एक और रिपोर्ट में पाया गया कि यहां के लोग पहले से ही सोवियत न्यूक्लियर टेस्ट के रेडिएशन का शिकार थे, क्योंकि कैरिबू (जिसे वे खाते थे) मॉस और लाइकेन खाते थे, जिनमें रेडिएशन जमा था.

1961 तक यह मामला मीडिया में छा गया और अमेरिका में पहली बार बड़े पैमाने पर एनवायरनमेंटल मूवमेंट खड़ा हो गया. इसी बीच AEC ने न्यू मैक्सिको में ‘प्रोजेक्ट ग्नोम’ किया, जिसमें ब्लास्ट पूरी तरह कंटेन करने की कोशिश नाकाम रही. रेडिएशन फैलने से लोगों और जानवरों को हटाना पड़ा और महीनों तक क्लीन फीड देना पड़ा. इससे प्रोजेक्ट चेयरियट के खिलाफ विरोध और भड़क गया.

1962 में AEC ने चुपचाप प्रोजेक्ट चेयरियट ड्रॉप कर दिया. करीब एक दशक बाद पूरा प्लोशेयर प्रोग्राम बंद हो गया. लेकिन न्यूक्लियर पावर को क्रिएटिव तरीके से इस्तेमाल करने का आइडिया आज भी कभी-कभी सामने आता है. एलन मस्क ने मंगल को रहने लायक बनाने के लिए थर्मोन्यूक्लियर ब्लास्ट का सुझाव दिया है, तो ट्रंप ने तूफानों को रोकने के लिए ‘न्यूक्स’ इस्तेमाल करने की बात की थी.

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